इंटरनेट को आज सबसे आधुनिक संचार माध्यम माना जाता है। पर जैसे-जैसे इस पर लोगों की निर्भरता बढ़ती जा रही है, लगता है कुछ इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों ने मुनाफे के लिए इसके उपयोग को अपने हिसाब से संचालित करने की कोशिश शुरू कर दी है। ‘एयरटेल जीरो’ की पहल को इसी कवायद का एक हिस्सा कहा जा सकता है। हालांकि इस पर व्यापक आपत्तियां सामने आने और ‘नेट न्यूट्रलिटी’ यानी नेट-निरपेक्षता के पक्ष में अभियान खड़ा हो गया। इसकी व्यापकता और कारोबार पर भावी असर को भांपते हुए ‘फ्लिपकार्ट’ ने ‘एयरटेल जीरो’ से अपना नाता तोड़ने की घोषणा कर दी, फिर एयरटेल कंपनी ने सफाई दी कि वह भी नेट-निरपेक्षता के पक्ष में है। लेकिन इस प्रस्ताव ने इंटरनेट के उपयोग के मसले पर एक बहस छेड़ दी है कि क्या इस रास्ते यह सुविधा मुहैया कराने वाली कंपनियां उपभोक्ताओं पर आर्थिक बोझ और उपयोग की सीमाएं तय कर रही हैं! गौरतलब है कि यह विवाद तब खड़ा हुआ जब एयरटेल की ओर से ‘एयरटेल जीरो’ का प्रस्ताव सामने आया। इसके तहत उपभोक्ताओं को डाटा पैक लेने के बावजूद उन वेबसाइटों का उपयोग करने के बदले अलग से पैसे चुकाने पड़ते, जो कंपनी के करार के दायरे में न हों। मसलन, अगर ‘एयरटेल जीरो’ के तहत आॅनलाइन व्यवसाय करने वाली वेबसाइट ‘फ्लिपकार्ट’ से इसका करार हो तो उसकी सुविधा डाटा पैक में गिनी जाएगी, मगर दूसरी ऐसी ही किसी वेबसाइट के लिए व्यक्ति को अलग से रकम अदा करनी होगी या फिर उसकी बेहद धीमी गति से समझौता करना पड़ेगा।
यह एक तरह की बंदिश है, जिसमें एक खास अवधि और डाटा के लिए रकम चुकाने के बावजूद इंटरनेट उपयोग के लिए कोई उपभोक्ता संबंधित कंपनी के रहमोकरम पर निर्भर हो जाए। एक तरफ कंपनी डाटा पैक की कीमत उपभोक्ता से वसूलती है, फिर किसी वेबसाइट कंपनी से सौदा करती है। सवाल है कि अगर कोई उपभोक्ता डाटा पैक के लिए भुगतान करता है तो वह उसके तहत संबंधित कंपनी के हिसाब से कोई वेबसाइट देखने को मजबूर क्यों हो? किसी कंपनी से यह सेवा लेने के बाद सभी प्रकार के इंटरनेट रास्तों तक उपभोक्ता की समान पहुंच क्यों नहीं होनी चाहिए? यह बेवजह नहीं है कि इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर लोगों ने विरोध जताया और भारतीय दूरसंचार विनियामक अधिकरण से मांग की कि नेट-निरपेक्षता को जारी रखा जाए। टेलीकॉम कंपनियों की दलील है कि वाइबर या वाट्सऐप जैसी नई तकनीक की वजह से इंटरनेट के जरिए बात करने या संदेश भेजने के चलते उनके व्यवसाय पर काफी नकारात्मक असर पड़ा है। इसलिए इन सेवाओं के लिए वे अलग से कीमत वसूलना चाहती हैं। लेकिन स्काइप, वाट्सऐप, वाइबर जैसी सुविधाएं संचार के इस माध्यम में नए प्रयोग हैं और इंटरनेट से ही संचालित होती हैं। उपभोक्ता इंटरनेट के उपयोग के लिए अगर कीमत अदा करता है तो अलग-अलग वेबसाइटों के लिए उससे अलग कीमत वसूलने का क्या औचित्य है? सवाल है कि क्या यह इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी की दोहरा मुनाफा कमाने की कोशिश नहीं है? फिर क्या इसके पीछे वेबसाइटों तक समान पहुंच को बाधित करने और कुछ खास वेबसाइटों तक उपभोक्ता को सीमित करने की मंशा भी काम कर रही है? अमेरिका, ब्राजील और नीदरलैंड जैसे कई देशों में नेट-निरपेक्षता लागू है और सेवा का स्तर भी बेहतर है। लेकिन हमारे यहां इंटरनेट की गति से लेकर इसके लिए वसूली जाने वाली राशि तक के मामले में शिकायतें छिपी नहीं हैं।
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