कुछ दिनों में अनेक राज्यों से किसानों के खुदकुशी करने की खबरें आई हैं। कुछ मौतें सदमे की वजह से भी हुई हैं। यह सिलसिला जारी है। वजह बेमौसम की बरसात और कई जगह ओलावृष्टि के चलते फसलों की बड़े पैमाने पर हुई बर्बादी है। गेहूं, चना, सरसों आदि फसलें और सब्जियां तो चौपट हुई ही हैं, कई जगह फलों की उपज भी नष्ट हुई है। जब पैदावार अच्छी होती है, तब भी वाजिब दाम न मिल पाने के कारण किसान अक्सर खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। पर जब प्रतिकूल मौसम या कीट-प्रकोप आदि के चलते फसल मारी जाती है, तब तो वे इस हालत में भी नहीं होते कि अगली फसल की लागत जुटा पाएं। बहुतेरे किसान कर्ज के बोझ से दबे रहते हैं। फसल की बर्बादी की सूरत में यह कर्ज उनके गले का फंदा बन जाता है।

मार्च के पहले पखवाड़े में हुई असमय बारिश ने किसानों की कमर तोड़ दी है। वे मुआवजे की मांग कर रहे हैं। पर उनकी इस मांग को मानना तो दूर, अभी सरकारी स्तर पर नुकसान का ठीक से आकलन भी नहीं हो पाया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से ‘मन की बात’ कहते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश तो की, पर रबी की फसल की बड़े पैमाने पर हुई तबाही और किसानों के लिए मुआवजे की मांग पर चुप्पी साध ली। मौसम विभाग ने इस महीने के आखिर और अगले महीने के शुरू में फिर वैसी बारिश की आशंका जताई है। ऐसा हुआ तो फसली नुकसान और बढ़ जाएगा। बेवक्त की बरसात और मौसम विभाग की ताजा भविष्यवाणी का मतलब यह भी है कि जलवायु बदलाव का कुप्रभाव बढ़ता जा रहा है।

उत्तराखंड और कश्मीर में जल-प्रलय को जलवायु संकट से अलग करके नहीं देखा जा सकता, अलबत्ता अनियोजित शहरीकरण और नदियों के ऐन किनारे तक हुए अंधाधुंध निर्माण ने विभीषिका और बढ़ा दी। हाल में हुई मुसीबत की बरसात और एक बार फिर उसकी आशंका का सबक यह है कि जलवायु संकट से निपटने की फौरी और दीर्घकालीन, दोनों तरह की रणनीति बनाई जाए। कृषि को अधिक विविधतापूर्ण बनाने के साथ ऐसी तकनीकें विकसित करने की जरूरत है कि अप्रत्याशित मौसम से होने वाला नुकसान न्यूनतम किया जा सके। फिर फसल बीमा की व्यावहारिक योजना बनाई जाए। वर्ष 1979 में फसल बीमा प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया था। इसके पांच साल बाद व्यापक फसल बीमा योजना लाई गई। मगर ये योजनाएं व्यावहारिक नहीं रही हैं। क्षतिपूर्ति के दावों की मंजूरी के लिए ऐसी शर्तें थोपी जाती हैं कि बीमाधारक बेकार के चक्कर काटने के अलावा कुछ नहीं कर पाते।

अमेरिका में फसल बीमा का दो तिहाई प्रीमियम सरकार चुकाती है, जबकि वहां खेती करने वाले लोगों और भारत के किसानों की आर्थिक स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है। अगर हमारी सरकार फसल बीमा के दो तिहाई प्रीमियम का जिम्मा अपने ऊपर ले ले, तो किसानों के लिए वह राहत का एक टिकाऊ उपाय होगा। कृषि-कर्ज की उपलब्धता बढ़ाना कोई कारगर समाधान साबित नहीं हुआ है। अगर खेती पुसाने लायक न हो तो रियायती दर का कर्ज भी मर्ज साबित होता है। सरकार ने अब तक इतना भी नहीं किया है कि किसानों से कर्ज की वसूली फिलहाल स्थगित कर दी जाए। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेगी, यह सुनिश्चित करेगी कि किसानों को उपज की लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिले। पर उसने अपने इस वादे से पल्ला झाड़ लिया है। किसानों की खुदकुशी कोई नियति नहीं है, हमारी राज्य-व्यवस्था की प्राथमिकताओं और किसानों के प्रति उसके रवैए से इसका सीधा संबंध है।

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