जम्मू-कश्मीर और झारखंड, दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपूर्व सफलता मिली है। झारखंड में वह सरकार बनाने की स्थिति में आ गई और जम्मू-कश्मीर की त्रिशंकु विधानसभा में दूसरा स्थान हासिल कर निर्णायक भूमिका में। लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि ये नतीजे किसी लहर की देन हैं। दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम सत्तारूढ़ दल के खिलाफ आए हैं, यानी दोनों जगह लोगों ने सरकार के खिलाफ अपनी नाराजगी का इजहार किया है। इसका खमियाजा जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के अलावा कांग्रेस को भी भुगतना पड़ा, जो आखिरी थोड़े समय को छोड़ कर वहां की सरकार में शामिल थी। झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा का भी वही हश्र हुआ, अलबत्ता उसका वैसा बुरा हाल नहीं हुआ जैसा कयास लगाया जा रहा था। दरअसल, झारखंड में सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (एकी) जैसे दलों को उठाना पड़ा है, जो बिहार में अपने गठबंधन के भरोसे चुनावी वैतरणी पार करने की उम्मीद पाले हुए हैं।
दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ दलों का आत्मविश्वास पहले से डांवांडोल था, जिसका एक संकेत यह भी है कि उमर अब्दुल्ला और हेमंत सोरेन दो-दो सीट से उम्मीदवार थे। दोनों को अपनी एक-एक सीट खोनी पड़ी। झारखंड में भाजपा की सरकार बनने का सेहरा मोदी के सिर बंधेगा। लेकिन अगर मोदी लहर थी, तो भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा अपने गढ़ में क्यों हार गए! जम्मू-कश्मीर में भाजपा का मिशन-44 पूरा नहीं हो पाया। पहली बार उसने घाटी में इतना जोर लगाया था और मोदी ने वहां कई रैलियां कीं। पर भाजपा घाटी में खाली हाथ रही। जम्मू-कश्मीर में भाजपा का कुल आंकड़ा उसके लिए उत्साहजनक जरूर है, पर यह उपलब्धि जम्मू के भरोसे हासिल हुई है, जो उसका पुराना गढ़ रहा है। लोकसभा चुनाव में उसे इस राज्य की छह में से तीन सीटें हासिल हुई थीं, बाकी तीन पीडीपी को। लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन के हिसाब से उसे और ज्यादा विधानसभा सीटें मिलनी चाहिए थीं। पर जहां खूब जोर लगाने के बावजूद वह घाटी का भरोसा जीतने में नाकाम रही, वहीं जम्मू में वह ऐसी लहर नहीं पैदा कर सकी, जो वहां बाकी सबका सूपड़ा साफ कर दे। यह दिलचस्प है कि इस बार धारा 370 को हटाने का मुद्दा भाजपा के चुनाव घोषणापत्र से नदारद था। यही नहीं, अलगाववादी सज्जाद लोन से दोस्ती गांठने में भी उसने गुरेज नहीं किया। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है, पर वहां सरकार के गठन का मसला फिलहाल उलझा हुआ है।
झारखंड में भाजपा की सरकार बनना तय है। स्थिर सरकार देने के उसके वादे ने रंग दिखाया, क्योंकि अलग राज्य बनने के बाद झारखंड के चौदह साल के इतिहास में नौ सरकारें बन चुकीं और तीन बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। भाजपा यह भी कह सकती है कि जनादेश वंशवाद के खिलाफ आया है, जिसकी बाबत मोदी ने अपनी हर चुनावी रैली में अपील की थी। पर इसका असर जम्मू-कश्मीर में क्यों नहीं हुआ, जहां पीडीपी पहले नंबर पर आई है? फिर, भाजपा बताएगी कि वह पंजाब में अकाली दल के साथ सत्ता-सुख क्यों भोग रही है, जहां पिता-पुत्र के हाथ में राज्य की कमान है? दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों की व्याख्या किसी सैद्धांतिक लकीर पर कर पाना मुश्किल है। इन्हें जनाक्रोश की अभिव्यक्ति के तौर पर ही बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। दोनों राज्यों में, पिछले कई चुनावों की तुलना में, मतदाताओं की अधिक भागीदारी के पीछे भी यह एक खास पहलू रहा होगा।
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