चुनाव सुधार का मसला जब-तब उठता रहा है। राजनीतिक दलों और जनप्रतिनिधियों के चंदे, संपत्ति आदि के ब्योरे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय, विधि आयोग, निर्वाचन आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग ने कई बार दिशा-निर्देश भी जारी किए। पर इस मामले में राजनीतिक दलों का रवैया उपेक्षा का रहा है। करीब दो महीने पहले विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सभी राजनीतिक दलों को चुनावी पारदर्शिता का निर्वाह करने की सलाह दी थी। केंद्रीय सूचना आयोग ने सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को सूचनाधिकार कानून के तहत जवाबदेह ठहराया था। मगर हकीकत यह है कि अब भी राजनीतिक दल इसका पूरी तरह पालन नहीं करते। यही वजह है कि कुछ कानूनविदों ने सर्वोच्च न्यायालय से इस मामले में सख्त निर्देश जारी करने की अपील की। विचित्र है कि जिन मामलों में राजनीतिक दलों को खुद नैतिक आधार पर पारदर्शिता बरतने का प्रयास करना चाहिए उन पर अदालतों को फटकार लगानी पड़ती है।
चुनाव सुधार की दिशा में सबसे बड़ी अड़चन पार्टियों का अपने आय-व्यय के ब्योरे उजागर करने को लेकर आनाकानी भरा रवैया है। नियम के मुताबिक पार्टियां बीस हजार रुपए तक के चंदे का स्रोत बताने को बाध्य नहीं हैं। ऐसे में देखा गया है कि वे बड़ी रकम को बीस हजार के टुकड़ों में बांट कर स्रोत बताने से बच निकलने का रास्ता तलाशती हैं। इसलिए विधि आयोग ने सुझाया था कि अगर बीस हजार रुपए से कम वाले कुल चंदे का योग बीस करोड़ से अधिक या फिर कुल चंदे का बीस फीसद हो तो उसका स्रोत बताना अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसी तरह कंपनियां चंदे के मामले में केवल अपने बोर्ड सदस्यों की नहीं, बल्कि सभी शेयरधारकों की सहमति हासिल करें। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए। पर राजनीतिक दल इस मामले में संजीदा नजर नहीं आते।
चुनाव में उम्मीदवारों के खर्च की सीमा तय है, पर राजनीतिक दलों के मामले में ऐसा नहीं है। इसलिए चुनावी खर्च में पूरी तरह पारदर्शिता नहीं बरती जा पाती। आमतौर पर हर प्रत्याशी पार्टी कोष के हवाले तय सीमा से अधिक खर्च करते देखा जाता है। पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह प्रचार-प्रसार पर बेपनाह खर्च हुआ, उसे देखते हुए कोई भी समझ सकता है कि चंदा जुटाने में जायज तरीका नहीं अपनाया गया। फिर सूचनाधिकार के तहत मांगी गई जानकारियों को कोई राजनीतिक दल गंभीरता से नहीं लेता, इसलिए उनकी आय के स्रोत का पता लगाना कठिन है। इसके अलावा निर्वाचन आयोग के अधिकार सीमित होने की वजह से उम्मीदवारों या फिर पार्टियों के खिलाफ अनियमितता की शिकायतों पर अपेक्षित सख्ती नहीं बरती जा पाती।
विधि आयोग ने निर्वाचन आयोग को अपेक्षित अधिकार देने की सिफारिश की थी। मगर चूंकि राजनीतिक दलों का प्रयास अपने को कानूनी दायरे से परे रखने का होता है, इसलिए जो भी पार्टी सत्ता में आती है, चुनाव सुधार संबंधी सख्त सिफारिशों को नजरअंदाज कर देती है। नियम-कायदों की अनदेखी जैसे उनकी आदत बन चुकी है। यही कारण है कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय से बार-बार गुहार लगानी पड़ती है। जब तक राजनीतिक दलों में पारदर्शिता की प्रवृत्ति नहीं पनपेगी, वे अदालती आदेशों से बचने के रास्ते निकालने की कोशिश करते रहेंगे। इसके लिए सूचनाधिकार के तहत उन्हें जानकारियां मुहैया कराने को बाध्यकारी बनाना जरूरी है। पिछले आम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने चंदे के मामले में पारदर्शिता बरतने की शुरुआत की थी, उसे आगे बढ़ाने का प्रयास दूसरे राजनीतिक दलों को क्यों नहीं करना चाहिए।
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