तमाम वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद भूकम्प की भविष्यवाणी कर पाना संभव नहीं हो पाया है। दुनिया भर में हुए अनुसंधान भूगर्भीय संरचना और धरती की आंतरिक हलचलों के बारे में जरूर बताते हैं और भूकम्प आने की वजहें भी चिह्नित करते हैं, पर वे भूकम्प का पूर्वानुमान नहीं दे पाते हैं। यही पहलू दूसरी आपदाओं के मुकाबले भूकम्प के सामने हमें अधिक असहाय बना देता है। इसकी विभीषिका इसलिए भी और बढ़ जाती है कि यह कुछ ही क्षणों में कहर बरपा देता है। धरती में हल्के कंपन बहुत बार होते हैं, कई बार वे इतने हल्के होते हैं कि पता भी नहीं चलता। लेकिन शनिवार को नेपाल में आए भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7.9 थी। अस्सी साल में इतना बड़ा भूकम्प नेपाल में पहले नहीं आया। इसका केंद्र काठमांडो से ज्यादा दूर नहीं था। इसलिए काफी तबाही हुई है। अब तक करीब चार हजार लोगों के मारे जाने की खबर है। इस जलजले को पूर्वी और उत्तरी भारत में भी साफ-साफ महसूस किया गया और बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक लोग दहल गए। चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश तक धरती के कांपने का पता चला।

नेपाल से करीब होने के कारण भारत में भूकम्प का सबसे ज्यादा असर बिहार में हुआ, जहां करीब साठ लोगों की जान गई है। दूसरे दिन एक बार फिर झटका आया। यों भूकम्प के बाद ऐसे झटके आना स्वाभाविक माना जाता है, जिन्हें ऑफ्टरशॉक कहा जाता है, पर वे बहुत हल्के होते हैं। जबकि रविवार को आए झटके की तीव्रता अप्रत्याशित रूप से पांच के करीब थी, और इसके चलते दहशत और बढ़ गई, बचाव और राहत-कार्य भी बाधित हुए। तीसरे दिन यानी सोमवार को एक बार फिर पांच के करीब की तीव्रता का भूकम्प आया, जिसका केंद्र काठमांडो से दो सौ किलोमीटर दूर और दार्जीलिंग के मिरिक के पास था। भारत सरकार ने नेपाल को मदद पहुंचाने में जो तत्परता दिखाई वह सराहनीय है। भारतीय वायुसेना के विमान भेजे गए और आपदा कार्रवाई बल के कई दस्ते वहां पहुंचे। अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन ने भी नेपाल को मदद भेजी है। भारत की ओर से पड़ोसी देश को इस संकट में भेजी गई सहायता का मानवीय पक्ष तो जाहिर है ही, यह आपदा के समय बचाव-कार्रवाई की उसकी क्षमता को भी प्रदर्शित करती है। पर यह काफी नहीं है। कुछ राज्यों ने अभी तक आपदा कार्रवाई बल का गठन नहीं किया है। भूकम्प के मद्देनजर कई ऐसे तकाजे हैं जिनकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। मसलन, भवन-निर्माण से संबंधित मानकों में भूकम्प-रोधी उपाय करना लंबे समय से शामिल रहा है, मगर उसका पालन अपवाद-स्वरूप ही हुआ है। बहुत-सी बड़ी-बड़ी इमारतें और सार्वजनिक भवन भी इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।

भारतीय उपमहाद्वीप का आधे से कुछ अधिक हिस्सा भूकम्प के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। फिर, यह क्षेत्र घनी बसाहट वाला है। इसलिए भवन-निर्माण की तकनीकी एहतियात के साथ-साथ भूकम्प की बाबत व्यापक जन-जागरूकता लाने के प्रयास भी जरूरी हैं। इस मामले में लोग कितने नादान हैं यह दिल्ली और दूसरी कई जगहों में देखने में आया। खतरे की भनक पाकर बहुमंजिली इमारतों से लोग बाहर तो निकल आए, पर खुली जगह में जाने के बजाय वहीं जमे रहे। भूकम्प से होने वाली त्रासदी सबसे ज्यादा मकानों के ढहने से होती है। इसलिए उनके भीतर रहें, या बाहर उनके नजदीक, कोई फर्क नहीं पड़ता। लातूर, कच्छ, चमोली के बाद नेपाल में आए भूकम्प ने एक बार फिर हमें चेताया है। इस चेतावनी का मतलब भय पैदा करना नहीं, बल्कि शहरी नियोजन में अपेक्षित सावधानियां बरतना और लोगों को जागरूक करना होना चाहिए।

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