एक बार फिर महिला आरक्षण कानून बनाने की मांग उठ रही है। करीब सत्ताईस साल से यह विधेयक लटका हुआ है। इसे लेकर प्राय: विपक्षी दल ही सक्रिय देखे जाते हैं। हालांकि कुछेक मौकों पर संसद में इसे पारित कराने की कोशिश की गई, मगर तब विपक्षी दलों की तरफ से ही कुछ ऐसे बिंदु रेखांकित कर दिए गए, जिन पर सहमति नहीं बन पाई और वह फिर ठंडे बस्ते के हवाले हो गया। इस बार इस मांग की अगुआई तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी और भारत राष्ट्र समिति की नेता के कविता कर रही हैं।

ED ने जिस दिन कविता को बुलाया, उसी दिन वह अनशन पर बैठ गईं

उन्होंने इसे लेकर एक दिन की भूख हड़ताल भी की। उनके समर्थन में तमाम विपक्षी दल आए। यह अजीब संयोग है या फिर सोची-समझी रणनीति के तहत तय किया गया समय है कि जिस दिन प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें कथित आबकारी नीति घोटाले में पूछताछ के लिए बुलाया था, वही दिन उन्होंने भूख हड़ताल के लिए चुना था। प्रवर्तन निदेशालय ने उनसे पूछताछ का समय एक दिन आगे बढ़ा दिया। दरअसल, ऐसी हड़तालें और किसी मसले को लेकर किए जाने वाले आंदोलन अब नेताओं के लिए अपना चेहरा चमकाने का अवसर बनते गए हैं। के कविता ने भी इसे एक अवसर के रूप में चुना, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने की मांग पुरानी है। इससे संबंधित विधेयक भी तैयार किया गया था, मगर उस पर आम सहमति न बन पाने की वजह से वह कानून का रूप नहीं ले सका है। हालांकि यह मामला इतना सीधा है भी नहीं। उसमें विभिन्न वर्गों और समुदायों आदि की महिलाओं को जगह दिलाना सबसे बड़ी चुनौती है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि कहीं इस आरक्षण का लाभ केवल कुछ संपन्न और प्रभुत्वशाली तबके की महिलाएं ही न उठाती रहें।

सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों और समाज के हाशिये पर रह रही महिलाओं को शासन की मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाए, यह एक पेचीदा काम है। इसलिए यह सुझाव भी दिया गया कि अगर राजनीतिक दल खुद नेतृत्व में महिलाओं को जगह देना शुरू कर दें, तो आरक्षण की दरकार ही नहीं रह जाएगी।

मगर हकीकत यह है कि बेशक सैद्धांतिक रूप से सभी महिला आरक्षण की बात करते हैं, पर शायद ही कोई राजनीतिक दल है, जिसके नेतृत्व की अगली कतार में एक तिहाई महिलाएं हैं। कार्यकर्ता के रूप में भले महिलाएं दिख जाएं, पर दलों के अंदरूनी नेतृत्व में उन्हें अहम जिम्मेदारियां कम ही दी जाती हैं। यही हाल चुनाव जीतने के बाद मंत्री पद के बंटवारे में भी देखा जाता है।

निस्संदेह सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। मगर यह केवल सैद्धांतिक तौर पर एकजुटता जाहिर करने से नहीं होगा, खुद राजनीतिक दलों को इसे व्यवहार में उतारना होगा। के कविता को इसे अपनी पार्टी के स्तर पर भी उतारना होगा, तभी विश्वास बनेगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस ने पचास फीसद सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारने का फार्मूला बनाया था, मगर चुनाव के बाद पार्टी नेतृत्व के स्तर पर वहां भी यह सिद्धांत लागू नहीं दिखाई देता।

अपने ऊपर लगे अनियमितता के आरोपों से ध्यान भटकाने के मकसद से अगर के कविता ने यह मुद्दा एक बार फिर से उठाया और इस बहाने विपक्षी दलों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया है, तो इससे उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। महिला आरक्षण को लेकर सभी दलों को व्यावहारिक रूप से सोचने की जरूरत है।