सभी देशों के हर खिलाड़ी का सपना होता है ओलंपिक में हिस्सा लेते हुए पदक हासिल करना, वह चाहे टीम के साथ खेल रहा हो या फिर अकेले। लेकिन आखिरकार वह देश का प्रतिनिधित्व कर रहा होता है और वहां उसकी हर उपलब्धि को इसी नजरिए से देखा जाता है। ओलंपिक में हिस्सा ले रहे हमारे देश के तमाम खिलाड़ी हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और उनसे जीतने या पदक हासिल करने की उम्मीद स्वाभाविक है। लेकिन अगर किन्हीं वजहों से वे पदक से बस एक कदम दूर रह जाएं तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपना धीरज खोकर उनके प्रति कोई दुराग्रह पाल लें और इसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने लगें।

सभी जानते हैं कि भारतीय महिला हॉकी टीम ने इस ओलंपिक में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। अपने मुकाबले दूसरे देशों की ज्यादा सक्षम टीमों को उन्होंने कड़ी चुनौती दी और कई मैचों में अपेक्षया मजबूत टीमों को हराया। आखिरी पायदान पर कांस्य पदक से चूक जाने के बावजूद समूचे देश ने उनकी मेहनत और काबिलियत को सराहा है। मगर अफसोसनाक यह है कि ऐसे वक्त में हमारे देश में सबसे आम और त्रासद समस्या के रूप में सामाजिक पूर्वाग्रहों से भरी एक घटना ने सबको शर्मसार किया।

दरअसल, देश की महिला हॉकी टीम जब सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हार गई तब इसकी एक सदस्य वंदना कटारिया के हरिद्वार स्थित घर के पास कुछ लोगों के पटाखे छोड़ने और वंदना के परिवार पर अपमानजनक टिप्पणियां करने की खबर आई। आरोपों के मुताबिक यहां तक कहा गया कि दलितों को टीम में जगह देने की वजह से देश की टीम हार गई… उन्हें खेलों से बाहर कर दिया जाना चाहिए! निश्चित तौर पर इस खबर ने समूचे देश में खेलों और इंसानियत को पसंद करने वाले तमाम लोगों को निराश किया है।

इस मामले में पुलिस ने तत्काल कार्रवाई करके एक आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है और मामले की जांच के बाद तस्वीर साफ होगी। लेकिन इतना साफ है कि विकास और आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद आज भी हमारे समाज में कई तरह के पूर्वाग्रह लोगों के बेहतर इंसान बनने में बाधक का काम कर रहे हैं। वंदना कटारिया के घर के बाहर जिन लोगों ने हंगामा किया, उसके पीछे एक तरह की कुंठा काम करती है। ऐसी प्रवृत्ति के लोगों को यह सोचना चाहिए कि चुनौतियों का सामना करते हुए वंदना आज देश की टीम के लिए खेल रही हैं और इस ओलंपिक में उन्हें हैट्रिक लगाने यानी तीन लगातार गोल दागने वाली अकेली खिलाड़ी के तौर पर जाना गया।

इसके अलावा, हाल में ऐसी खबरें भी आईं कि ओलंपिक में ही जब पीवी सिंधू और लवलीना बोर्गोहेन ने कांस्य पदक जीता या सुनिश्चित किया तो इंटरनेट पर उनकी जाति खोजने में बहुत सारे लोग मशगूल हो गए। आखिर ऐसा काम करने की जरूरत लोगों को क्यों पड़ती है, जो न केवल खिलाड़ियों को, बल्कि खुद उन्हें भी एक छोटे दायरे में कैद कर देती है!

गौरतलब है कि इस ओलंपिक में हॉकी की महिला और पुरुष टीमों के अलावा कई खेलों में खिलाड़ियों ने पदक हासिल किया या नहीं, लेकिन जिस स्तर का प्रदर्शन किया, वह भविष्य के लिए उम्मीद जगाती है। खासतौर पर वंदना कटारिया सहित महिला हॉकी टीम की कई सदस्यों के जीवन-संघर्ष और उनके टीम में पहुंच कर ओलंपिक खेलने के ब्योरे बहुत सारे संवेदनशील लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं कि अगर उन्हें बेहतर संसाधन और प्रशिक्षण मुहैया कराए गए होते, तो आज शायद तस्वीर कुछ और होती। खिलाड़ियों को अगर अपने देश के लोगों से भावनात्मक समर्थन और प्रोत्साहन मिलता है, तो वह भी बहुत मायने रखता है।