सड़क दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के प्रयासों की एक बड़ी कमी लोगों में सड़क सुरक्षा संबंधी कानूनों का भय न होना है। पहली बात तो यह कि यातायात नियमों के उल्लंघन पर दंड का प्रावधान बहुत कम होने के कारण बहुत-से लोग इसकी परवाह नहीं करते। खासकर संपन्न लोगों में यह धारणा बन गई लगती है कि वे जुर्माना भर कर या फिर अपने रसूख के बल पर आसानी से यातायात नियमों के उल्लंघन के दोष से बरी हो लेंगे। इन प्रवृत्तियों के मद्देनजर सजा के प्रावधान को कुछ कड़ा बनाने का प्रयास हुआ, मगर वह अब भी कारगर नहीं है।
इसके अलावा यातायात पुलिस के बारे में उजागर है कि वह सड़क सुरक्षा संबंधी नियम-कायदों की अनदेखी करने वालों के साथ अपेक्षित कड़ाई नहीं बरतती। अक्सर रिश्वत लेकर या किसी प्रभाव में आकर उन्हें छोड़ देती है। अगर कभी गंभीर दुर्घटना करने वालों के खिलाफ मुकदमा दायर भी होता है तो बहुत सारे लोग कानून की कमजोर कड़ियों का फायदा उठा कर बच निकलते हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने यातायात कानूनों का ठीक से पालन न किए जाने और रईसों के अदालतों से बगैर कोई कड़ा दंड पाए, सहज भाव से मुक्त हो जाने पर उचित ही तीखी टिप्पणी की है।
पंजाब में नशे की हालत में गाड़ी चला रहे एक व्यक्ति ने दो लोगों को रौंद दिया था, जिसमें दोनों की मौत हो गई। इस पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने दोषी को महज चौबीस दिन की सजा सुनाई, जो कि वह विचाराधीन कैदी के रूप में पहले ही भुगत चुका था। इस पर सख्त एतराज जताते हुए सर्वोच्च अदालत ने पूछा कि सड़क हादसों में रईसों को नाममात्र की सजा क्यों?
सड़क हादसे में किसी की मृत्यु हो जाने पर कानून के मुताबिक दोषी चालक को दो साल की कैद और जुर्माने का प्रावधान है। मगर अक्सर संपन्न लोग पीड़ित परिवार को समझा-बुझा कर और कुछ राशि देकर मुकदमा वापस लेने के लिए मनाने में सफल हो जाते हैं। यही पंजाब में संबंधित हादसे को लेकर भी हुआ। अदालतें इस आधार पर दोषी को बरी कर देती हैं कि उसने पीड़ित पक्ष को संतोषजनक मुआवजा दे दिया। मगर जान गंवा देने या जीवन भर के लिए अपंगता का शिकार हो जाने वालों के परिजनों की पीड़ा इतने भर से दूर नहीं हो जाती।
बहुत सारे ऐसे लोग हादसों के शिकार होते हैं, जिन पर पूरे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी होती है। उनके न रहने या अपंग हो जाने से पूरे परिवार पर मुसीबत आ पड़ती है। कानून में तय मुआवजा या फिर अदालत के बाहर हुए करार के मुताबिक पीड़ित पक्ष को मिलने वाला पैसा न न्यायसंगत होता है न उसके सहारे के लिए पर्याप्त। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरफ भी इशारा किया है कि मुआवजे का निर्धारण व्यावहारिक होना चाहिए। अगर दोषियों को मामूली सजा मिलने के सिलसिले पर विराम लग जाए, तो
उचित हर्जाने के लिए भी दबाव बनेगा। इससे यातायात नियमों को लेकर मनमानी करने और गफलत का मामला साबित कर छूट जाने वालों में कुछ भय कायम होगा। मगर बहुत सारे मामले ऐसे भी होते हैं, जिनमें दुर्घटना के बाद दोषी की पहचान नहीं हो पाती। उन पर अंकुश लगाने के क्या उपाय हो सकते हैं, इस पर भी सोचना होगा।
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