दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को विदेश का दौरा छोड़ फौरन दिल्ली लौटने के लिए उपराज्यपाल का कहना एक असामान्य घटना है। इससे सिसोदिया की किरकिरी तो हुई ही, साख के सकंट से जूझ रही आम आदमी पार्टी की सरकार की छवि को एक बार फिर धक्का लगा है। आखिरकार उपराज्यपाल नजीब जंग को ऐसा कदम उठाने की जरूरत क्यों महसूस हुई होगी? दिल्ली इन दिनों सेहत संबंधी मुसीबत से गुजर रही है। डेंगू और चिकनगुनिया का प्रकोप आतंक का रूप ले चुका है। दोनों बीमारियों से अब तक इकतीस मौतें हो चुकी हैं और करीब तीन हजार लोग इनकी चपेट में हैं।

इसके अलावा, नए पीड़ितों के मामले रोज सामने आ रहे हैं। जाहिर है, यह स्थिति किसी भी सरकार के लिए युद्धस्तर पर काम करने की होती है। पर हालत यह है कि जहां दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुद बंगलुरु के एक अस्पताल में भर्ती हैं, वहीं उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया विदेश चले गए। सिसोदिया का कहना है कि वे फिनलैंड की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था खासकर स्कूल प्रणाली का अध्ययन करने फिनलैंड गए थे। वहीं विपक्ष का आरोप है कि वे वहां छुट््टी मनाने गए थे। जो हो, इसमें दो राय नहीं कि फिनलैंड की बेहतरीन स्कूल प्रणाली की सराहना दुनिया भर के शिक्षाविद करते रहे हैं और उससे सीखने की सलाह देते हैं। आप सरकार का एक खास दावा दिल्ली में सरकारी स्कूलों की हालत में सुधार के लिए लगातार प्रयास करने का रहा है। सिसोदिया के पास शिक्षा विभाग भी है। लेकिन सवाल है कि फिनलैंड की आदर्श स्कूली व्यवस्था को समझने के लिए उन्होंने यही वक्त क्यों चुना, जब दिल्ली डेंगू तथा चिकनगुनिया के दर्द से कराह रही है, और जब खुद के एक आॅपरेशन के चलते मुख्यमंत्री का दिल्ली से बाहर रहना पहले से तय रहा होगा?

सिसोदिया पहली बार आप सरकार बनने पर, हाड़ कंपाती ठंड में बेघरों की सुध लेने और उन्हें ठंड से बचाने का इंतजाम करने के लिए रात भर घूमते रहते थे। वह संवेदनशीलता अब कहां है? और यह सवाल सिर्फ उनसे नहीं, पूरी आप सरकार और आम आदमी पार्टी के समूचे नेतृत्व से किया जा सकता है। यह सही है कि दिल्ली सरकार के पास मामूली शक्तियां हैं; हाइकोर्ट दो टूक कह चुका है कि उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं।

इसलिए दिल्ली में बहुत सारी गड़बड़ियों के लिए उपराज्यपाल और प्रकारांतर से केंद्र की जवाबदेही कम नहीं है। लेकिन सिसोदिया की गैर-हाजिरी का मामला अधिकार से जुड़ा प्रश्न नहीं है, बल्कि यह आम आदमी से जुड़ाव का प्रश्न है। आम आदमी पार्टी इस वादे और दावे के साथ वजूद में आई थी कि वह वीआइपी संस्कृति वाली राजनीति तथा सुप्रीमो शैली वाली दलीय कार्यप्रणाली से उलट एक वैकल्पिक राजनीति की धारा बहाएगी। लेकिन ऐसा लगता है कि कभी आम आदमी होने का दम भरते रहे लोग भी अब ‘नेता वर्ग’ में शामिल हो गए हैं और अन्य पार्टियों से भिन्न होने के उनके दावे में दम नहीं रह गया है। विडंबना यह है कि चेतने के बजाय, साख की अपनी समस्या को वे भी दूसरे सत्ताधारी दलों की तरह सरकारी प्रचार से दूर करना चाहते हैं। सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर गठित केंद्र की समिति ने उनके इस रवैए पर उचित ही सवाल उठाए हैं।