कश्मीर घाटी में हिंसा का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा। किसी न किसी बहाने वहां सुरक्षा बलों पर पथराव शुरू हो जाता है और फिर झड़पों में कुछ लोगों को जान गंवानी पड़ती है। श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भी यही हुआ। रविवार सुबह ही बडगांव, गंदेरबल आदि जगहों पर सैकड़ों लोगों की भीड़ ने सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी शुरू कर दी, जिससे पार पाने के लिए सुरक्षा बलों को गोलियां चलानी पड़ीं। उसमें छह लोग मारे गए और कई घायल हो गए। इससे चुनाव प्रक्रिया पर भी असर पड़ा। इस घटना का फायदा उठा कर अलगाववादी गुटों को अपनी राजनीति चमकाने का बहाना मिल गया। उन्होंने दो दिन के घाटी बंद का आह्वान कर दिया। करीब दस दिन पहले ही दक्षिण कश्मीर के एक गांव में आतंकवादियों के छिपे होने की खबर मिलने के बाद जब सुरक्षा बलों ने मोर्चा संभाला तो गांव वालों ने पत्थरबाजी शुरू कर दी थी। उस वक्त भी सुरक्षा बलों की गोली से दो युवक मारे गए थे।
आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से ही कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों को जब-तब इस तरह के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। छिपी बात नहीं है कि अलगाववादी संगठन और कुछ कट्टरपंथी नेता युवाओं को कानून-व्यवस्था के विरोध में पत्थर उछालने के लिए उकसाते हैं। इस प्रवृत्ति पर काबू पाने के मकसद से कुछ महीने पहले घाटी के लोगों और अलगाववादी नेताओं के बातचीत के लिए एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा गया था, मगर उसका कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। समझने की जरूरत है कि आखिर घाटी में ऐसे हालात क्यों बने हैं। केंद्र सरकार और अलगाववादी नेताओं के बीच छत्तीस का आंकड़ा पुराना है, पर स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने की कोशिशों से इस मामले में कई बार सकारात्मक नतीजे भी देखे गए हैं। अलगाववादी धड़े मुख्यधारा की राजनीति में न तो खुद शामिल होना चाहते और न इसे सफल होने देना चाहते हैं, इसलिए वे चुनावों का विरोध करते रहे हैं। श्रीनगर सीट के लिए हुए उपचुनाव में उपद्रव पैदा करने के पीछे भी उनकी यही मंशा थी।
जबसे जम्मू-कश्मीर की सत्ता में भाजपा ने भागीदारी की है, घाटी में तनाव कुछ अधिक देखने को मिल रहा है। मगर केंद्र की तरफ से इस स्थिति को सामान्य बनाने की पर्याप्त कोशिशें नहीं हुई हैं। घाटी में रोजगार की समस्या है, इसलिए वहां के युवा आसानी से अलगाववादियों और कट्टरपंथी नेताओं के बहकावे-उकसावे में आ जाते हैं। उनमें यह विश्वास पैदा करने की कोशिश भी नहीं दिखाई दे रही कि घाटी में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। अलगाववादी नेताओं के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए जरूरी है कि स्थानीय लोगों, खासकर युवाओं का भरोसा जीता जाए। घाटी के लोगों के मन में सेना की ज्यादतियों के जख्म पहले से गहरे हैं, उस पर जब भी कुछ और लोग सुरक्षा बलों की गोलीबारी का निशाना बनते हैं, उनका आक्रोश और बढ़ जाता है। इसका फायदा सीमा पार के आतंकी संगठन उठाते हैं और अलगाववादियों के सहारे युवाओं में नफरत को हवा देते हैं। इसलिए सिर्फ संगीन के भरोसे अमन और विश्वास बहाली शायद ही संभव हो। आतंकवाद पर काबू पाने के प्रयासों के साथ-साथ घाटी के मन को समझने का सतत प्रयास जरूरी है। सर्वदलीय बैठक के जरिए इसके समाधान के रास्ते तलाशने में सरकार को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।