बीते शनिवार को दुनिया के अनेक देशों में ‘अर्थ ऑवर’ मनाया गया। बिजली बचाने का संदेश देकर पर्यावरण के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाना इस कार्यक्रम का उद्देश्य है। आठ साल पहले आस्ट्रेलिया के सिडनी में कुछ लोगों ने थोड़े समय के लिए बिजली का इस्तेमाल बंद या न्यूनतम करके इसकी शुरुआत की थी। अलबत्ता अर्थ आॅवर नाम इसे बाद में दिया गया। कुछ ही सालों में यह पर्यावरणीय संकट के मद्देनजर ऊर्जा संरक्षण की अहमियत बताने वाला एक वैश्विक अभियान बन गया। अर्थ ऑवर दिवस पर रात को साढ़े आठ बजे से एक घंटे तक बिजली की खपत न्यूनतम रखने की इस मुहिम में आज दुनिया के करीब एक सौ सत्तर देश और सात हजार शहर शामिल हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र भवन और ब्रिटिश पार्लियामेंट भवन जैसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण इमारतों की भी स्वेच्छा से कुछ देर के लिए बिजली की कटौती की जाती है। इस बार हमारे राष्ट्रपति भवन ने भी अभियान में शिरकत की। इस सब का मकसद यही है कि लोग बिजली की खपत घटाने के लिए प्रेरित हों। यह अभियान लोगों को याद दिलाता है कि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं और उनके इस्तेमाल में किफायत बरती जानी चाहिए। जलवायु संकट के दौर में इस संदेश की अहमियत और बढ़ जाती है। लेकिन अर्थ ऑवर कार्यक्रम की अपनी सीमाएं भी हैं। पहली बात तो यह है कि साल में महज एक घंटे के लिए बिजली का इस्तेमाल स्थगित या न्यूनतम रखना एक प्रतीकात्मक कदम से अधिक नहीं कहा जा सकता। इस प्रतीकात्मकता का महत्त्व तभी है जब बाकी समय भी ऊर्जा की बचत का रुझान लोगों में विकसित होता नजर आए। लेकिन वैसा नहीं हो पाया है। साल में एक बार एक घंटे के प्रतीक-कार्यक्रम में सम्मिलित होने वाले लोग भी बाकी सारे समय ऊर्जा संरक्षण के तकाजे को भुलाए रहते हैं।

फिर, यह अभियान ऊर्जा की खपत में बढ़ती जा रही विषमता की तरफ से उदासीन है। उन लोगों को ऊर्जा संरक्षण की सीख कैसे दी जा सकती है, जिन्हें चौबीस घंटों में आधे समय भी बिजली नहीं मिलती। इस कार्यक्रम के कई आलोचकों ने यह तक कहा है कि बिजली की खपत घटाने के लिए प्रोत्साहित करना पर्यावरण-हितैषी नहीं माना जा सकता, क्योंकि बिजली ने ही जीवाश्म र्इंधनों पर निर्भरता काफी हद तक कम की है। एक घंटे का स्वेच्छया ‘अंधेरा’ रखने के दौरान लोग मोमबत्ती का सहारा लेते हैं, जो पेट्रोलियम-जनित है। इस आलोचना को खारिज नहीं किया जा सकता। दरअसल, अर्थ आॅवर का मकसद नेक है, पर इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह सिर्फ बिजली बचाने पर केंद्रित है। और वह सालाना एक घंटे का ही हो, तो लोगों के लिए उसे अपनाना सुविधाजनक भले हो, पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कारों का इस्तेमाल कम करने की मुहिम चलाना पर्यावरण के लिए भी ज्यादा उपयोगी साबित हो सकता और जीवाश्म र्इंधन के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने के लिहाज से भी। सबसे बड़ा तकाजा यह है कि ऊर्जा-उत्पादन ज्यादा से ज्यादा ऐसे स्रोतों से हो, जो प्रदूषण-रहित हों और न चुकने वाले भी। यानी पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा को अधिक से अधिक बढ़ावा दिया जाए। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि विकास के प्रचलित मॉडल, जो जल, जंगल, जमीन के अधिकाधिक दोहन पर आधारित है, की जगह टिकाऊ विकास की अवधारणा को साकार करने की तरफ बढ़ा जाए, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिए भी बचाए रखने की चिंता शामिल रहती है।

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