हरियाणा सरकार और पर्यावरण मंत्रालय को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का ताजा निर्देश सही वक्त पर सही हस्तक्षेप है। न्यायाधिकरण ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार और पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया है कि वे फरीदाबाद जिले में अरावली क्षेत्र का स्वतंत्र अध्ययन कराएं और दो महीने के भीतर इसकी रिपोर्ट दें। इस अध्ययन में हरित क्षेत्र की वास्तविक स्थिति का पता लगाने के अलावा वृक्षों का सर्वे भी शामिल होगा। याचिका में यह आशंका जताई गई थी कि संबंधित क्षेत्र में जंगल के नष्ट होने का खतरा मंडरा रहा है। इस अंदेशे को दरकिनार नहीं किया जा सकता, क्योंकि राज्य सरकार मंगर बानी को ‘गैर-मुमकिन पहाड़’ यानी खेती लायक न मानने के पहले के प्रावधान को बदल कर कृषि-योग्य श्रेणी में लाना चाहती है। यों जंगलों की अवैध कटाई देश के तमाम हिस्सों में होती रही है। पर अरावली की विशेष स्थिति यह है कि भूमि उपयोग बदल कर यहां का वनक्षेत्र कॉरपोरेट खिलाड़ियों और बिल्डरों को सौंपने की तैयारी कर ली गई है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों हरियाणा के वन विभाग ने राज्य में पड़ने वाले अरावली के अधिकांश क्षेत्र को जंगल न मानने का फैसला किया। जबकि विभाग ने पिछले महीने इस सारे इलाके को वन श्रेणी में माना था। इसे क्यों पलट दिया गया? दक्षिण हरियाणा की करीब एक लाख हेक्टेयर भूमि अरावली क्षेत्र में आती है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सबसे सघन वन यहीं हैं। पर्यावरणविद इन्हें बचाने की अपील करते रहे हैं। लेकिन यहां की केवल बीस हजार हेक्टेयर भूमि को संरक्षित वन माना गया है। अब इस पर भी भूमि उपयोग बदलाव की तलवार लटक रही है। राज्य सरकार का यह रवैया वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन तो है ही, सर्वोच्च अदालत के कई फैसलों की अवमानना भी है। वन संरक्षण अधिनियम के तहत प्रावधान है कि वनभूमि गैर-वनीय कामों के लिए नहीं ली जा सकती। अगर किन्हीं विशेष स्थितियों में ऐसा करना जरूरी हो, तो उसके लिए केंद्र सरकार की अनुमति अनिवार्य होगी, और बदले में उतनी ही भूमि वृक्षारोपण के लिए वन विभाग को दी जाएगी। फिर, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि अरावली का यह क्षेत्र वन संरक्षण अधिनियम के तहत आता है। ऐसे में राज्य सरकार ने किस आधार पर तय कर लिया कि इसे वनभूमि न माना जाए?
हरित पंचाट ने पहले भी मंगर बानी के कुछ हिस्सों में भूमि उपयोग बदलने की तीन कंपनियों की कोशिशों पर रोक लगा दी थी। पंचाट के उस फैसले से कोई सबक लेने के बजाय राज्य सरकार फिर वैसी ही कोशिशों का रास्ता साफ करना चाहती है। पर्यावरण मंत्रालय की इस पर नजर क्यों नहीं गई? या, वह जान-बूझ कर चुप्पी साधे रहा है? हरियाणा सरकार ही नहीं, केंद्र ने भी कई पर्यावरण-विरोधी फैसले किए हैं। पश्चिमी घाट के पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र को कम करने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण के मकसद से बने कानूनों की समीक्षा के लिए एक समिति गठित कर दी गई, इसलिए कि औद्योगिक और खनन परियोजनाओं को वनभूमि सौंपने की गुंजाइश निकाली जा सके। अरावली वनक्षेत्र में भूमि उपयोग बदलने की हरियाणा सरकार की मंशा एक खतरनाक नतीजे को ही न्योता देगी, वहां के बचे-खुचे जंगल भी निहित स्वार्थों की भेंट चढ़ जाएंगे। हरित पंचाट के निर्देश ने इसी खतरे से बचाव की उम्मीद जगाई है।
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