फ्रांस की राजधानी पेरिस में छह जगहों पर सिलसिलेवार हमले कर इस्लामिक स्टेट यानी आइएस के दहशतगर्दों ने एक बार फिर दुनिया के ताकतवर देशों की सुरक्षा-व्यवस्था को कड़ी चुनौती पेश की है। इन हमलों में एक सौ अट्ठाईस लोगों के मारे जाने और ढाई सौ से अधिक लोगों के गंभीर रूप से जख्मी होने की खबर है। हमलावरों की पहचान कर ली गई है और फ्रांस सरकार ने इस हमले को जंग बताते हुए दहशतगर्दी के खिलाफ कठोर कदम उठाने का संकल्प दोहराया है। अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी सहित दुनिया के तमाम देशों ने दहशतगर्दी के खिलाफ लड़ाई में साथ देने का मंसूबा बांधा है। मगर इससे आइएस की गतिविधियों पर नकेल कसने में कितनी कामयाबी मिल पाएगी, फिलहाल कहना मुश्किल है।
पेरिस में हमले के दूसरे ही दिन आइएस के एक आत्मघाती दस्ते ने तुर्की में जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन स्थल के बाहर खुद को बम से उड़ा लिया। इस सम्मेलन में दहशतगर्दी से निपटने के लिए व्यावहारिक उपायों पर चर्चा अहम मुद्दा बन गया है। यह फ्रांस में इस साल आइएस का दूसरा बड़ा हमला है। जनवरी में जब व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हमला हुआ था, तब भी दुनिया भर में आइएस की बढ़ती ताकत पर चिंता जाहिर की गई थी। फ्रांस ने संकल्प लिया था कि वह दहशतगर्दी पर अंकुश लगाने के कड़े उपाय करेगा। मगर स्थिति यह है कि अगस्त में आइएस ने फ्रांस में बड़े हमले की साजिश रच डाली। गनीमत है, वह साजिश नाकाम कर दी गई। फिर काफी समय से खुफिया एजंसियों की चेतावनी के बावजूद फ्रांसीसी सुरक्षा बल ताजा हमलों को रोक नहीं पाए तो निस्संदेह यह बड़ी चुनौती है।
दरअसल, आइएस की बढ़ती ताकत पश्चिमी देशों की गलत नीतियों का नतीजा है। इराक पर अमेरिकी हमले के बाद अलकायदा से अलग होकर आइएस ने अपनी स्वतंत्र गतिविधियां चलानी शुरू कर दीं। उसे कुछ देशों का समर्थन भी मिला। अब हालत यह है कि सीरिया और इराक पर एक तरह से आइएस का कब्जा है। उसके पास अत्याधुनिक हथियार और संचार प्रणाली है। दुनिया के विभिन्न देशों में उसका संजाल फैल चुका है। खासकर इस्लाम के नाम पर युवाओं को भटकाने में उसे खासी कामयाबी मिल रही है। पश्चिमी देश शुरू से आइएस के निशाने पर हैं, इसलिए पेरिस पर उसके दो बड़े हमले एक तरह से पश्चिमी देशों को चेतावनी की तरह हैं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कहा भी है कि हम चाहे जो तैयारी कर लें, पर उस खतरे से बाहर नहीं हैं।
हकीकत यह है कि दहशतगर्दी से निपटने के नाम पर खुद अमेरिका ने समांतर आतंकवादी संगठनों को शह दी, जिसके फलस्वरूप आइएस ने अपनी जड़ें गहरी कर लीं। फिर इस्लामिक स्टेट की अवधारणा को लेकर कई देशों की नीतियां आइएस के समर्थन में हैं। खुद सीरिया के मसले पर रूस और अमेरिका में मतभेद हैं। जब तक इस तरह के मतभेद और छोटे-छोटे राजनीतिक स्वार्थ बने रहेंगे, आइएस को कमजोर या फिर खत्म करना मुश्किल बना रहेगा। आइएस के उभार को लेकर भारत की चिंता इसलिए अलग है कि उसे पहले ही सीमा पार से मिल रही आतंकी चुनौतियों से निपटना कठिन बना हुआ है, ऐसे में अगर यहां आइएस का प्रभाव पड़ता है तो मुश्किलें और बढ़ेंगी। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुर्की में जी-20 देशों के सम्मेलन में संयुक्तराष्ट्र से इस मामले में रणनीति बनाने की अपील की।