राहत की बात है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई घट कर पिछले पच्चीस महीनों के निचले स्तर पर पहुंच गई है। मई में यह 4.25 फीसद दर्ज हुई। पिछले साल इसी अवधि में यह 7.04 फीसद पर थी। खुदरा महंगाई के काबू में न आ पाने की वजह से स्वाभाविक ही सरकार के माथे पर बल नजर आने लगे थे।

भारतीय रिजर्व बैंक ने इस पर काबू पाने के मकसद से कई बार नीतिगत दरों में बदलाव करते हुए रेपो दरें ढाई फीसद तक बढ़ा दीं। उसका कहना था कि महंगाई अगर छह फीसद से नीचे के स्तर पर बनी रहती है, तो विकास दर में उल्लेखनीय प्रगति आने लगेगी। इस लिहाज से रिजर्व बैंक के लिए भी राहत की बात है, क्योंकि अब उस पर मौद्रिक नीति में बदलाव का मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं रहेगा।

हालांकि पिछले महीने भी जब खुदरा महंगाई दर में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज हुई थी तो औद्योगिक परिसंघ के कुछ लोगों की अपेक्षा थी कि रिजर्व बैंक रेपो दरों में कटौती करेगा। मगर उसने दृढ़ता पूर्वक कह दिया कि किसी भी तरह का जोखिम मोल लेना अभी उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कुछ ही क्षेत्रों में कमी दर्ज हुई थी, कई क्षेत्रों में महंगाई की दर ऊपर का रुख बनाए हुई थी।

ताजा आंकड़ों में भी खाद्य और र्इंधन उत्पादों की कीमतों में नरमी की वजह से महंगाई दर में कमी दर्ज हुई है। उसमें भी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में काफी कमी आई है। खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 2.91 फीसद दर्ज हुई, जबकि पिछले महीने यह 3.84 फीसद थी। इसमें भी सबसे अधिक गिरावट खाद्य तेलों और सब्जियों की कीमतों में दर्ज की गई, जबकि दालों और अनाज की महंगाई दर बढ़ कर क्रमश: 12.65 और 6.56 फीसद रही।

अर्थशास्त्रियों ने आशंका जताई है कि चालू वित्तवर्ष की दूसरी छमाही में मानसून सामान्य से कम रहने की वजह से खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है। इससे जाहिर है कि फिलहाल रिजर्व बैंक के लिए जरूर कुछ राहत की बात है, मगर उसे लगातार महंगाई पर नजर रखनी पड़ेगी।

खुदरा महंगाई की दर मानसून और कृषि उत्पादन पर भी काफी कुछ निर्भर करती है, इसलिए इसमें मौसमी प्रभावों को स्थायी समाधान नहीं माना जाता। महंगाई का रिश्ता औद्योगिक उत्पादन और रोजगार के अवसरों से भी जुड़ा होता है। मगर महंगाई के आंकड़ों के साथ ही औद्योगिक उत्पादन का जो आंकड़ा आया है, वह निराश करने वाला ही है।

औद्योगिक उत्पादन की दर इस साल अप्रैल में 4.2 फीसद की दर से बढ़ा, जबकि पिछले साल इसी अवधि में 6.7 फीसद था। विनिर्माण, खनन और बिजली उत्पादन का प्रदर्शन घटा है। कोरोना काल में बंदी की वजह से औद्योगिक इकाइयों की स्थिति काफी डांवाडोल हो गई थी, मगर फिर जब उसने गति पकड़ी तो उम्मीद की जा रही थी कि वह तेजी से आगे बढ़ेगी। मगर ऐसा हो न सका।

औद्योगिक उत्पादन न बढ़ने का असर सीधा नए रोजगार के सृजन पर पड़ता है। जब लोगों के पास रोजगार नहीं रहेगा, तो उनकी क्रय क्षमता भी कम होगी। इस तरह वह बाजार में खर्च को लेकर अनुत्साहित ही रहेगा। यही वजह है कि घरेलू टिकाऊ वस्तुओं का उत्पादन भी घटा है। ऐसे में अगर सब्जियों और कच्चे कृषि उत्पाद की कीमतें घटने से महंगाई पर काबू नजर आता है, तो इसे लेकर बहुत उत्साहित होने की जरूरत नहीं।