हरियाणा के पुलिस प्रधान केपी सिंह के एक बयान को लेकर स्वाभाविक ही विवाद खड़ा हो गया। पिछले हफ्ते हरियाणा के जींद में ‘पंचायती राज में पुलिस की भूमिका’ विषय पर सेमिनार को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अगर आम इंसान किसी को किसी महिला के साथ्ां दुराचार करते देखे या किसी संपत्ति को जलाए जाते या किसी की हत्या की कोशिश किए जाते देखे, तो कानून उसे इस तरह की घटनाओं में लिप्त व्यक्ति की जान लेने का अधिकार देता है। विवाद उठने के बावजूद डीजीपी महोदय ने अपने बयान को सही ठहराने की कोशिश की है। उनकी दलील है कि उन्होंने वही कहा जो भारतीय दंड संहिता की धारा 100 और 103 में लिखा है। लेकिन सवाल है कि आत्मरक्षा के अधिकार या संकट में पड़े किसी व्यक्ति की मदद में उठाए जाने वाले आपातकालीन कदम को क्या इस तरह व्याख्यायित किया जा सकता है कि पुलिस की ड्यूटी और आम आदमी के सरोकार का फर्क मिटता हुआ लगे?

आत्मरक्षा की हिंसा और हमले के तौर पर की गई हिंसा में कानून हमेशा फर्क करता आया है और अदालतें परिस्थितियों को ध्यान में रख कर ही उन पर विचार करती हैं। यह केवल भारतीय दंड संहिता की नहीं, सारी दुनिया के विधि-विधान की एक सामान्य बात है। पर घोर संकटकाल को ध्यान में रख कर जो प्रावधान किए गए होंगे, उनको अगर आम नागरिक के आम कर्तव्य का आह्वान मान लिया जाएगा, तो उससेकई तरह के खतरे पैदा हो सकते हैं। कोई किसी को सबक सिखाने के इरादे से की गई हिंसा के लिए भी वैसी ही दलील पेश कर सकता है।

जहां इरादतन या साजिशन न हो, वहां महज शुबहे की बिना पर भी कानून हाथ में लेने का खतरा हो सकता है। फिर दंगे जैसी परिस्थितियों में, जब सांप्रदायिक नफरत चरम पर होती है, किसी की हत्या को आत्मरक्षा की बिना पर या आगजनी रोकने के लिए की गई कार्रवाई बता सही ठहराने की कोशिश हो सकती है। बेशक इस बारे में अदालत का ही फैसला माना जाएगा, पर एक आला पुलिस अफसर को किसी कानूनी प्रावधान के बारे में इस तरह नहीं बोलना चाहिए कि उसके दुरुपयोग का अंदेशा पैदा होता हो।

विवादित बयान से दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या अपराध इसलिए नहीं रोके जा पा रहे हैं कि पुलिस बल अपर्याप्त है, और नागरिकों को कई दफा पुलिस जैसी भूमिका में आ जाना चाहिए? आम अनुभव यह है कि बहुत बार पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है; जहां उसे स्वत: संज्ञान से कार्रवाई करनी चाहिए, शिकायत करने और बार-बार गुहार लगाने के बावजूद टस से मस नहीं होती। हाल में हरियाणा में जाट आंदोलन की हिंसा के दौरान लोगों को यह अनुभव जगह-जगह हुआ। जहां पुलिस अपने दायित्व से भाग खड़ी होती हो, वहां किसी प्रावधान की मनमानी व्याख्या कर आम नागरिकों से अपराध रोकने का आह्वान करने का क्या मतलब है? सही है कि अपराध के खिलाफ नागरिकों को सचेत और सक्रिय होना चाहिए। यह बहुत बार देखने में आता है कि लोग बदमाशों से किसी को घिरा देख कर भी चुप रह जाते हैं। दरअसल, इस नागरिक निष्क्रियता और खामोशी को तोड़ने की जरूरत है, न कि किसी प्रावधान के नाम पर कानून हाथ में लेने की। पर एक डीजीपी को पहले इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि क्या पुलिस अपना दायित्व ठीक से निभा रही है?