अमूमन हर साल इन दो-तीन महीनों के दौरान बरसात की वजह से देश के कई इलाकों में बाढ़ जैसे हालात आम हैं। लेकिन हर साल इस वजह से होने वाली तबाही से शायद ही कोई सबक लिया जाता है। नतीजतन, हर अगले साल बाढ़ से होने वाली बर्बादी का पैमाना घटता नहीं है, बल्कि कई जगहों पर यह व्यापक हो जाता है। इस साल एक बार फिर लगातार बरसात की वजह से कई राज्यों में बाढ़ ने विकराल रूप अख्तियार कर लिया है और उससे होने वाली तबाही का दायरा भी बढ़ता जा रहा है।
यों बाढ़ और बर्बादी के लिहाज से बिहार को एक खास पहचान-सी मिली हुई है और मान लिया जाता है कि वहां इस मौसम में लोग बरसात और बाढ़ को लेकर अभ्यस्त हो चुके हैं। विडंबना यह है कि इसे एक गंभीर समस्या के रूप में देखने के बजाय इससे निपटने के प्रति उदासीनता या लापरवाही की वजह से नुकसान का दायरा बड़ा हो जाता है। इस साल हालत यह है कि गंगा, बागमती, गंडक, पुनपुन और घाघरा सहित कई अन्य नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। अब तक सोलह जिलों के करीब बयासी लाख लोग बाढ़ और इसके असर की चपेट में आ चुके हैं और पच्चीस लोगों की मौत हो चुकी है।
देश में कई अन्य राज्यों में भी हालात बेहतर नहीं हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश में बाढ़ में डूबने की वजह से सात लोगों की जान जा चुकी है। मौसम विभाग के पूर्वानुमान के मुताबिक पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र सहित उत्तर-पश्चिम भारत में अगले दो-तीन दिनों तक भारी बारिश हो सकती है, जिसके दायरे में गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, असम, उत्तराखंड सहित ग्यारह राज्य आ सकते हैं।
मौसम विभाग ने सावधानी बरतने की चेतावनी जारी की है। दरअसल, पिछले कई सालों की तरह इस बार भी बरसात की शुरुआत के बाद से ही देश के अनेक राज्यों की नदियों में उफान आ गया और उसके तटीय इलाके पहले ही बाढ़ के दायरे में थे। अब पिछले कुछ दिनों से लगातार बरसात की वजह से बाढ़ वाले तमाम इलाकों में जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर चला गया है। ऐसे में जान-माल को होने वाले नुकसान का बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
सही है कि बरसात मौसम के प्राकृतिक चक्र का अनिवार्य हिस्सा है और बाढ़ को भी एक प्राकृतिक आपदा माना जाता है। लेकिन बाढ़ जितनी कुदरती तौर पर मनुष्य के लिए संकट बनती है, उससे ज्यादा यह मनुष्यों की व्यवस्था की वजह से कहर बरपाती है। शायद ही कभी बांध बनाते हुए उसके दूरगामी असर या नतीजों का आकलन किया जाता है। नदियों को बांध कर तात्कालिक तौर पर कोई फायदा तो सुनिश्चित कर लिया जाता है, लेकिन उसमें पानी जमा होकर जब एक सीमा से अधिक हो जाता है, तब आखिर उसे छोड़ना ही पड़ता है। यानी जो पानी अपनी सहज गति से नदियों के अपने रास्ते से निकल जाता, वह बांधों की वजह से तबाही की शक्ल ले लेता है।
शहरों में पानी की निकासी की व्यवस्था को लेकर जिस तरह की लापरवाही देखी जाती है, उसमें नदियों में आने वाले बाढ़ की तो दूर, बरसात का पानी ही जमा होकर बाढ़ के रूप में तबाही मचाने लगता है। बाढ़ एक आपदा के रूप में हर साल हमें एक सबक देकर जाती है। अफसोस की बात यह है कि उससे सबक लेने और अगली बार उससे निपटने की उचित तैयारी करने के बजाय हम फिर अगले साल की बाढ़ का इंतजार करने लगते हैं। जाहिर है, बाढ़ के कहर का सामना करना एक तरह से हमारी नियति हो जाती है, जो टाली जा सकती थी।