मणिपुर में हिंसा की ताजा घटनाओं में छह लोगों के मारे जाने और कई अन्य के घायल हो जाने से साफ है कि तमाम कवायदों के बावजूद सरकार वहां शांति स्थापित कर पाने में नाकाम है। वहां हिंसा शुरू हुए करीब चार महीने हो गए हैं और इस बीच पुलिस से लेकर सेना तक का सहारा लेकर टकराव में शामिल गुटों को काबू में करने की कोशिशें जारी हैं।
मगर आज भी वहां जैसे हालात हैं, उसके मद्देनजर सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है। गौरतलब है कि मणिपुर में गुरुवार को चुराचांदपुर-बिष्णुपुर सीमा पर दो गुटों की गोलीबारी में छह लोगों की मौत हो गई। चुराचांदपुर कुकी-जोमी बहुल इलाका है और बिष्णुपुर में ज्यादातर आबादी मैतेई समुदाय की है।
ताजा संघर्ष में मारे गए लोगों में वहां के एक लोकप्रिय गीतकार की भी जान चली गई। मंगलवार से अब तक गोलीबारी में कुल नौ लोग मारे जा चुके हैं। इन घटनाओं के बाद एक रिवायत की तरह पुलिस की ओर से फिर यही कहा गया है कि हिंसाग्रस्त इलाकों में तलाशी अभियान चलाया जा रहा है। सवाल है कि इतने लंबे संघर्ष और इसमें शामिल समूहों के चिह्नित होने के बावजूद सरकार और प्रशासन हिंसा और अराजकता को रोकने के मामले में क्यों लाचार दिख रही है!
विडंबना है कि इस मसले पर उच्चतम न्यायालय सरकार को हिदायत दे चुका है कि वह हिंसा पर लगाम लगाने और शांति कायम करने के लिए ठोस कदम उठाए, जरूरी कार्रवाई करे। उसकी तरफ से गठित निगरानी समिति मणिपुर में काम शुरू कर चुकी है। मगर इससे अफसोसनाक और क्या होगा कि इसके बावजूद वहां के कई इलाके अब भी अशांत हैं।
हालांकि राज्य सरकार स्थिति को नियंत्रण में कर लेने का भरोसा जता रही है, लेकिन पिछले कई महीने से जैसी घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं, उससे साफ है कि हिंसा को रोक पाने में वहां की पुलिस व्यापक पैमाने पर नाकाम साबित हुई है। यह बेवजह नहीं है कि जिन इलाकों में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच टकराव अधिक था और उससे निपटना एक जटिल चुनौती थी, वहां हालात पर काबू पाने के लिए सेना को भी उतारा गया। पर ऐसा लगता है कि इस समस्या से उपजी चिंता गहराती जा रही है।
गौरतलब है कि बीती मई की शुरुआत में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने के मसले पर शुरू हुए विरोध के बाद हिंसा भड़क गई और उसका दायरा फैलता चला गया। मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संघर्ष में लगभग दो सौ लोगों की जान जा चुकी है और सैकड़ों घायल हुए हैं। इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार की ओर से शांति समिति का भी गठन किया गया था।
मगर अब भी दोनों समुदायों के बीच हिंसा को रोक पाना संभव क्यों नहीं हो सका है। दूसरी ओर, यह स्थिति भी पैदा हुई कि कुकी समुदाय की ओर से अपनी उपेक्षा को कारण बताते हुए स्वायत्त प्रशासन की मांग उठाई गई। सवाल है कि हिंसा शुरू होने के मूल कारणों पर गौर करना और उसे सुलझाने के लिए कोई रास्ता निकालना सरकार को क्यों जरूरी नहीं लग रहा है!
फिलहाल सबसे प्राथमिक कदम यह होना चाहिए कि सरकार हिंसा और टकराव को रोकने के साथ ही इसमें शामिल सभी पक्षों से बातचीत का हर संभव कदम उठाए, क्योंकि समस्या चाहे जितनी भी जटिल हो, उसका समाधान आखिरी तौर पर संवाद से ही निकलेगा।