लेकिन रविवार को नेपाल में जो हुआ, उससे एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल का नया दौर शुरू हो गया है। गौरतलब है कि नेपाल में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने मंत्रिमंडल की आपात बैठक में संसद को भंग करने का फैसला लिया और इसे राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को भेज दिया। एक आकलन यह है कि मौजूदा संसदीय दल, केंद्रीय समिति और पार्टी सचिवालय में प्रधानमंत्री केपी ओली अपना बहुमत खो चुके हैं।

लेकिन इस मसले पर आंतरिक बैठक करने और उसका हल निकालने की कोशिश करने के बजाय उन्होंने संसद भंग करने का फैसला ले लिया। हैरानी की बात यह है कि जिस फैसले से नेपाल में फिलहाल राजनीतिक तौर पर व्यापक उथल-पुथल मच सकती है, उस पर राष्ट्रपति ने मंजूरी देने में देर नहीं लगाई। उन्होंने ओली सरकार की सिफारिश के मुताबिक देश की संसद यानी प्रतिनिधि सभा को भंग करने के बाद आनन-फानन में मध्यावधि चुनावों की घोषणा कर दी।

दिलचस्प यह है कि इस बार यह संकट वहां के विपक्षी दलों या आम जनता की ओर से किसी विरोध आंदोलन का नतीजा नहीं है, बल्कि खुद सत्ताधारी खेमे के भीतर ही महत्त्वाकांक्षाओं की होड़ और आपसी खींचतान की वजह से यह स्थिति पैदा हुई। इसे खुद नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने सार्वजनिक रूप से जाहिर किया कि कुछ नेताओं की अवांछित गतिविधियों के कारण ऐसे हालात पैदा हुए। हालांकि बीते कुछ समय से सत्ताधारी दल के भीतर मौजूद दोनों खेमों के बीच परोक्ष रूप से खींचतान चल रही थी और इसे अंदरूनी तौर पर सत्ता-संघर्ष के रूप में देखा जा रहा था। पार्टी के शीर्ष नेताओं की ओर से ओली पर एकतरफा नीतिगत फैसले लेने के आरोप लगाए जा रहे थे।

लेकिन सवाल है कि क्या इसका आखिरी हल संसद को भंग करना ही था! मंत्रिमंडल की जिस बैठक के बाद ओली ने संसद भंग करने की सिफारिश की, उस पर विरोध जताते हुए सात मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया। इससे यही लगता है कि सरकार में एक बड़ा हिस्सा संसद भंग करने के बजाय अन्य उपायों से समस्या का हल निकालने के पक्ष में था। लेकिन खुद प्रधानमंत्री की सिफारिश और उस पर राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद नेपाल को अब नई राजनीतिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।

हालांकि राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद इस फैसले पर विवाद खड़ा हो गया है और बड़े पैमाने पर इसके विरोध में प्रदर्शन भी हुए हैं। वहां संविधान के जानकारों का मानना है कि नेपाल में नए संविधान में सदन भंग करने को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्री के कदम को असंवैधानिक बता कर इसे अदालत में चुनौती भी दी जा सकती है।

दरअसल, राजशाही के युग की समाप्ति के बाद नेपाल लंबे समय तक बनी रही राजनीतिक अस्थिरता के मद्देनजर नए संविधान में संसद को भंग करने के प्रावधान से बचा गया। लेकिन अब अगर राष्ट्रपति की ओर से अपने फैसले पर पुनर्विचार नहीं होता है तो नेपाल को संकट काल का भी सामना करना पड़ सकता है। यों मौजूदा सरकार के चीन प्रेम और भारत के प्रति नकारात्मक रवैये की वजह से खुद नेपाल में ही विरोध की स्थिति खड़ी हो रही थी। अब देखना होगा कि जद्दोजहद का नया दौर शुरू होने के बाद आने वाले वक्त में नेपाल की कैसी राजनीतिक तस्वीर बनती है।