चालू वित्तवर्ष की पहली तिमाही में विकास दर धीमी पड़ने से स्वाभाविक ही सरकार की चिंता कुछ बढ़ी होगी। सरकार ने इस वित्तवर्ष में आठ से साढ़े आठ फीसद की विकास दर का लक्ष्य रखा है। मगर इस वर्ष अप्रैल से जून की तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर सात फीसद पर रुक गई, जबकि इसकी पिछली तिमाही यानी जनवरी से मार्च के दौरान यह साढ़े सात फीसद थी।

अप्रैल-जून तिमाही में सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों का प्रदर्शन सबसे खराब दर्ज हुआ। कृषि के बाद ये रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं। इसलिए ताजा आंकड़े रोजगार के लिहाज से भी चिंताजनक हैं। देशी-विदेशी बाजारों में मांग घटने से यह नौबत आई है। इसलिए माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक पर नीतिगत दरें घटाने का दबाव बन सकता है। सरकार ने विकास दर ऊंची रहने का अनुमान इस आधार पर लगाया था कि पेट्रोल-डीजल सस्ता हुआ है, खाद्य पदार्थों की कीमतें कुछ स्थिर हुई हैं। इसलिए माना जा रहा था कि बाजार में पूंजी का प्रवाह बढ़ेगा और उत्पादन बढ़ने से विकास दर का रुख ऊपर की तरफ रहेगा। मगर मांग में तेजी नहीं आई।

फिर निवेश में बढ़ोतरी का जो अनुमान लगाया गया था, वह आशा के अनुरूप नहीं रहा। निर्यात की गति सुस्त रही। लिहाजा विकास दर का ग्राफ पहले से नीचे आ गया। अप्रैल-जून की तिमाही में दर्ज सुस्ती लगभग सभी क्षेत्रों के खराब प्रदर्शन की ओर संकेत करती है। इसलिए पिछली तिमाही के मुकाबले यह गिरावट भले आधा फीसद की हो, इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

अप्रैल-जून की तिमाही के समय से चालू तिमाही में स्थितियां बेहतर होती नजर नहीं आ रहीं। तमाम कोशिशों के बावजूद न तो निवेश बढ़ रहा है, न निर्यात की दर बढ़ रही है। इस साल मानसून भी कमजोर रहा, जिसके चलते कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन कमजोर रहने की आशंका है।

चीन में पैदा हुई आर्थिक उथल-पुथल से वैश्विक स्तर पर चिंताएं बढ़ी हैं, भारत भी उससे अछूता नहीं रहने वाला। भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक और वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम पारित न हो पाने के कारण सरकार की औद्योगिक विकास संबंधी नीतियों को झटका लगा है। ऐसे में ताजा आंकड़ों के मद््देनजर दबाव बना कर उद्योग जगत भले नीतिगत दरों में बदलाव कराने में कुछ कामयाब हो जाए, पर यह दावा नहीं किया जा सकता कि इससे विकास दर बढ़ेगी ही। महंगाई पर काबू पाने के मकसद से कई बार बैंक दरों में बदलाव का नुस्खा आजमाया जा चुका है।

विकास दर और मुद्रास्फीति में संतुलन बिठाना बहुत नाजुक मामला है। ब्याज दरों में कटौती से जहां बाजार में पूंजी-प्रवाह बढ़ाने में सहूलियत होती है, वहीं महंगाई पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने हाल में ब्याज दरों में कुछ कमी लाने के संकेत दिए हैं। लेकिन सिर्फ मौद्रिक कवायद से ज्यादा उम्मीद नहीं बांधी जा सकती। घरेलू मांग में कमी की समस्या से कारगर ढंग से तभी निपटा जा सकता है जब उन लोगों की भी आय बढ़े जो क्रयशक्ति के लिहाज से हाशिये पर रहे हैं।

 

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