बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बीमा क्षेत्र में एफडीआइ यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने और कोयला खदानों की नीलामी से संबंधित अध्यादेशों को मंजूरी दे दी। यह संसदीय प्रक्रिया की अवहेलना है। संविधान में अध्यादेश का प्रावधान आपातकालीन जरूरत के लिए है। फिर, इसका सहारा तब लिया जाना चाहिए जब संसद का सत्र न चल रहा हो। लेकिन मोदी सरकार ने ऐसे मामलों में अध्यादेश लाने का फैसला किया जिनसे संबंधित विधेयक संसद में पेश हो चुके हैं। राज्यसभा की प्रवर समिति ने उनकी बाबत अपनी सिफारिशें भी दे दी हैं। ऐसे में अध्यादेश लाने का फैसला और भी अलोकतांत्रिक जान पड़ता है।

विपक्ष में रहते हुए भाजपा अध्यादेश के उपाय का पुरजोर विरोध करती थी। इसके लिए उसने कई बार यूपीए सरकार को कठघरे में खड़ा किया। मगर अब जब वह खुद सत्ता में है, उसका रवैया बदल गया है। मोदी सरकार ने अपनी शुरुआत ही अध्यादेश से की। प्रधानमंत्री ने अपने सचिव की नियुक्ति के लिए अध्यादेश लाकर ट्राइ यानी भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के नियम बदल दिए। उसी समय दूसरा अध्यादेश पोलावरम परियोजना के तहत विस्थापन का दायरा बढ़ाने के लिए लाया गया था।

ताजा अध्यादेशों के जरिए सरकार यह जताना चाहती है कि वह आर्थिक सुधारों के लिए किस हद तक उत्साहित है। पर यह बेचैनी अगले महीने अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के आगमन के मद््देनजर भी हो सकती है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने ये विधेयक संसद के शीतकालीन सत्र में पारित न हो पाने का दोष विपक्ष पर मढ़ा है। पर भाजपा चाहती है कि विकास या आर्थिक सुधार के काम तेजी से हों, तो धर्मांतरण जैसे विवादों को हवा देने में वह क्यों जुटी है? कॉरपोरेट जगत के भी कई लोगों ने, दबी जुबान से ही सही, ऐसे विवाद खड़े करने पर चिंता जताई है। फिर, भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि विरोध जताने के लिए संसद की कार्यवाही ठप करने का उसका कैसा रिकार्ड रहा है। एक समय सुखराम पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर उसने तेरह दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी।

मगर हिमाचल प्रदेश में सत्ता-सुख के लिए उन्हीं सुखराम से हाथ मिलाने में उसे तनिक संकोच नहीं हुआ था। यूपीए सरकार के दौरान काले धन के मुद््दे पर भाजपा के शोर-शराबे के कारण संसद का कितना वक्त जाया हुआ। मगर आज मोदी सरकार काले धन के मामले में वही सब कह रही है जो यूपीए सरकार कहती थी। बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद कर दी गई है। पर इस अध्यादेश से बीमा के क्षेत्र में धड़ाधड़ एफडीआइ आने की जो उम्मीद की जा रही है, वह शायद ही पूरी हो।

विदेशी बीमा कंपनियां नए निवेश का फैसला करने से पहले कानून में स्थिरता चाहेंगी। जबकि अध्यादेश एक अंतरिम व्यवस्था है। इसलिए ज्यादा संभावना यही है कि बाहरी निवेशक भारत के बीमा बाजार में अपनी पूंजी लगाने के लिए फिलहाल देखो और इंतजार करो का रुख अपनाएं। फिर, विदेशी निवेशकों के लिए उनचास फीसद की सीमा ज्यादा आकर्षक नहीं हो सकती, क्योंकि इस दायरे में रहते हुए उन्हें भारतीय कंपनियों के साथ जो साझेदारी करनी होगी उसमें वे निर्णायक भूमिका में नहीं रहेंगी। इसलिए देर-सबेर उनकी तरफ से इस सीमा को बढ़ाने, कम से कम इक्यावन फीसद करने की मांग उठ सकती है। अगर अध्यादेश जैसे आपातकालीन प्रावधान का उपयोग बाजार-केंद्रित सुधारों का संदेश देने के लिए किया जाएगा, तो इसका इस्तेमाल और बढ़ने का अंदेशा है।

 

 

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