इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि किसी लाचारी की हालत में बच्चियों ने जिस जगह पर आश्रय लिया हुआ था, वह उनके लिए शोषण और यातना का नया स्थल साबित होगी! खासतौर पर जब वह आश्रय स्थल सरकारी मदद से चल रहा हो तो यह सवाल ज्यादा गंभीर हो जाता है। बिहार के मुजफ्फरपुर में सरकारी मदद से संचालित ‘बालिका गृह’ में सैंतालीस बच्चियां रह रही थीं और वहां उनमें से ज्यादातर से बलात्कार किया गया और यातनाएं दी गर्इं। खबरों के मुताबिक अगर किसी बच्ची ने कभी विरोध किया तो उसे बेरहमी से पीटा गया और आरोप यहां तक आए हैं कि एक बच्ची की हत्या करके वहीं दफना दिया गया। कई बच्चियों के शरीर पर जलने के निशान हैं। पुलिस की जांच में छह बच्चियों के गायब होने की भी खबर सामने आई है। अपने हालात से लड़ती बच्चियों के साथ यह अत्याचार शायद चुपचाप चलता रहता, अगर ‘टिस’ यानी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने उस बालिका गृह का सोशल ऑडिट नहीं किया होता। यानी उसी जांच के दौरान वहां की बच्चियों ने अपने यौन शोषण और अत्याचार के बारे में जानकारी साझा की। उससे पहले तक उन्हें डरा-धमका कर चुप रखा गया था। गौरतलब है कि बिहार सरकार के समाज कल्याण महकमे की ओर से ‘टिस’ राज्य में महिलाओं और बच्चियों के लिए बनाए गए सभी एक सौ दस आश्रय स्थलों का सोशल ऑडिट कर रहा था।

सरकारी मदद से चलने वाले किसी संगठन या आश्रय स्थल में यह कैसी व्यवस्था है कि इतने बड़े पैमाने पर बच्चियों के खिलाफ अपराध होता रहा और उसके बारे में किसी को खबर तक नहीं हुई? मई महीने में ही इंस्टीट्यूट ने जांच में मुजफ्फरपुर स्थित बालिका-गृह में बड़े पैमाने पर यौन शोषण के मामले दर्ज किए थे। उसके बाद बालिका गृह को बंद कर दिया गया था और उसमें रह रही बच्चियों को दूसरे आश्रय स्थलों में भेज दिया गया था। लेकिन जिस तरह की खबरें आई हैं, उनके मुताबिक ‘टिस’ की रिपोर्ट में राज्य में स्थित अलग-अलग आश्रय स्थलों में रहने वाली महिलाओं या बच्चियों के यौन शोषण के आरोप सामने आए हैं। फिर क्या गारंटी है कि नए आश्रय स्थलों में बच्चियां सुरक्षित होंगी? जाहिर है, यह न केवल संचालकों की मिलीभगत से चलने वाला संगठित अपराध लगता है, बल्कि प्रशासन और संबंधित महकमे की घोर लापरवाही भी कि इतने वक्त से उस आश्रय स्थल में बच्चियों का बलात्कार हो रहा था और सारे मामले दबाए जाते रहे। आखिर किस स्तर से ऐसी भयानक लापरवाही बरती गई कि बच्चियों ने जहां शरण ली हुई थी, वही उनके लिए खौफ की नई जगह बन गई।

यह समझना मुश्किल है कि जिन बच्चियों और महिलाओं को अपने जीवन की मुश्किल स्थितियों का सामना करने के लिए सरकारी मदद से चलने वाले आश्रय स्थलों में रखा जाता है, उन्हें नई त्रासदी में कैसे झोंक दिया गया! अब अगर सरकार पर ऐसे आरोप लग रहे हैं कि वह इस समूची घटना में शामिल रसूख वाले लोगों को बचाने की कोशिश कर रही है तो इसकी क्या वजह है? बिहार की मौजूदा सरकार ने अक्सर कानून और व्यवस्था के मोर्चे पर कोई समझौता नहीं करने का दावा किया है। लेकिन पिछले कुछ समय से बिहार में अपराधों का ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा है, उससे उन दावों की हकीकत साफ नजर आती है। मुजफ्फरपुर की घटना से यह साफ है कि आश्रय स्थलों को लेकर एक सुगठित तंत्र के साथ निगरानी की नियमित व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि वहां रह रही बच्चियां या महिलाएं सुरक्षित महसूस कर सकें!