संसद में इससे संबंधित एक निजी विधेयक पेश किया गया, जिसका विपक्षी दलों ने विरोध किया, मगर मत विभाजन के जरिए उस पर चर्चा की मंजूरी मिल गई। हालांकि निजी विधेयकों पर कानून बनने के उदाहरण बहुत कम हैं, मगर इसे लेकर उम्मीद जताई जा रही है कि यह कानून की शक्ल ले सकता है।

इसलिए कि समान नागरिक संहिता लागू करना खुद सरकार की वचनबद्धताओं में एक है। इसे लेकर पहले भी पहल हो चुकी है, मगर कुछ तकनीकी अड़चनों के चलते सहमति नहीं बन सकी। फिर, अभी जो निजी विधेयक पेश किया गया उसे सत्तापक्ष के ही एक सांसद ने सदन के पटल पर रखा। उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक जैसे कुछ भाजपा शासित राज्य पहले ही इसे लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं।

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था। यानी देश में इसे कानूनी रूप देने की जमीन पहले से तैयार है, उसमें इस विधेयक पर सदन में चर्चा का माहौल भी बन गया। इसलिए इसके सिरे चढ़ने की संभावना अधिक नजर आती है।

दरअसल, समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा ने उठाया जरूर था, मगर इसकी जरूरत सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो मामले की सुनवाई के वक्त ही रेखांकित कर दी थी। शाहबानो ने तलाक के बाद अपने बच्चों के भरण-पोषण को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाया था। तब अदालत ने सरकार से समान आचार संहिता बनाने को कहा था।

मगर इसमें तकनीकी अड़चन यह आ रही थी कि ऐसा कानून लागू करने से अल्पसंख्यक समुदाय की धार्मिक आस्था पर चोट पहुंच सकती है, जो कि असंवैधानिक कहा जा सकता है। असल में, मुसलिम समुदाय में शादी एक करार होती है, जिसे कोई भी एक पक्ष अपनी मर्जी से तोड़ने को स्वतंत्र है। बहुविवाह का चलन भी वहां स्वीकृत है। इस तरह विवाहिता पत्नी और उससे पैदा हुए बच्चों के भरण-पोषण, संपत्ति आदि का हक बाधित होता है।

इसलिए खुद मुसलिम समाज की बहुत सारी महिलाएं समान आचार संहिता लागू करने की मांग करती रही हैं। फिर इसके पक्ष में तर्क यह भी दिया जाता है कि जब संविधान में धर्म और जाति से परे समान अधिकार की बात कही गई है, तो विवाह आदि के मामले में धार्मिक आस्था को क्यों महत्त्व दिया जाना चाहिए। तरक्की पसंद मुसलमान भी इस कानून के पक्ष में रहे हैं, मगर उनका कहना है कि इसे लागू करने से पहले तमाम संवेदनशील पहलुओं पर बारीकी से विचार कर लिया जाना चाहिए।

जब केंद्र सरकार ने तीन तलाक को खत्म करने का फैसला किया, तब बड़ी तादाद में मुसलिम महिलाओं ने अपनी खुशी का खुला इजहार किया था। इस तरह समान नागरिक संहिता को लेकर भी इस समुदाय की तरफ से किसी व्यापक विरोध की आशंका नजर नहीं आती। दरअसल, यह मामला धर्म से अधिक महिलाओं के हक से जुड़ा हुआ है। बहुत सारे देशों ने विवाह के बाद पति द्वारा पत्नी और बच्चों को बेसहारा छोड़ दिए जाने की प्रथा पर कानूनी रोक लगा रखी है।

सब जानते हैं कि तलाक के बाद मुसलिम महिलाओं का गुजारा मेहर की रकम से होना मुश्किल होता है। उन्हें पति की संपत्ति पर बराबर का हक मिलेगा, तो न केवल वे खुद को सशक्त महसूस कर पाएंगी, बल्कि मनमानी तलाक पर भी लगाम लगेगी। मगर इसे कानूनी रूप देने से पहले इसके सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए।