सूडान और यूक्रेन संकट के चलते ग्यारह करोड़ लोग विस्थापित हुए। एक करोड़ दस लाख से अधिक लोगों को यूक्रेन पर रूस के हमले के कारण अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। द्वितीय महायुद्ध के बाद से यह पहली बार है जब इतनी बड़ी संख्या में लोगों को अपना मूल निवास छोड़ कर दूसरी जगहों पर ठिकाना तलाशने को मजबूर होना पड़ा।

सूडान में संघर्ष के चलते अप्रैल के बाद से करीब बीस लाख लोग अपना घर-बार छोड़ चुके हैं। इसी तरह कांगो गणराज्य, इथोपिया और म्यांमा में संघर्ष के कारण करब दस-दस लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायुक्त ने इसे मानवता के लिए कलंक माना है। इन देशों में अभी स्थितियां सुधरने या बदलने की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही। सीरिया, लेबनान, लीबिया में संघर्ष और विस्थापन की त्रासदी लोग देख ही चुके हैं।

दुनिया के बहुत सारे देशों में अपने पड़ोसी देशों के साथ या आंतरिक संघर्ष चल रहा है, जातीय संघर्ष, धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद, गृहयुद्ध, गरीबी आदि वजहों से लोग अपना मूल निवास छोड़ कर कहीं दूसरी सुरक्षित जगहों पर शरण पाने की कोशिश कर रहे हैं। इनमें से बहुत सारे लोग वर्षों से शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं, सुरक्षा कारणों से वे वापस अपने वतन जाना भी नहीं चाहते।

किन्हीं विषम परिस्थितियों में लोगों को अपना बसा-बसाया घर-बार, रोजगार के साथन, जमीन-जायदाद छोड़ कर दूसरे किसी देश के शरणार्थी शिविर में रह कर संघर्ष करना पड़े, तो उनके जीवन की त्रासदी का अंदाजा लगाया जा सकता है। दूसरे विश्वयुद्ध की त्रासदी को लोग अब भी नहीं भूले हैं, उसके नतीजे रूह कंपा देने वाले रहे।

उसके बाद युद्ध, आंतरिक संघर्ष, जातीय-धार्मिक कट्टरता आदि के चलते मनुष्य के सामने पैदा होने वाले संकटों को टालने के मकसद से कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का गठन किया गया। शरणार्थियों को लेकर एक अंतरराष्ट्रीय अभिरूप भी तभी बना, जिसके तहत दूसरे देश इस तरह की स्थितियों में पलायन कर आए लोगों को अपने यहां पनाह देंगे।

मगर स्थिति यह है कि बहुत सारे देश अब शरणार्थियों का बोझ नहीं उठा पा रहे, इसलिए वे या तो अपने यहां से शरणार्थियों को निकालना चाहते हैं या नए शरणार्थियों को आने से रोकने का प्रयास करते हैं। भारत भी कई बार म्यांमा, पाकिस्तान, बांग्लादेश के शरणार्थियों का बोझ उठा पाने को लेकर अपनी पीड़ा जाहिर कर चुका है।

द्वितीय महायुद्ध का सबक तो यह था कि युद्ध या किसी भी तरह का संघर्ष मानवता के लिए खतरा है और उसे किसी भी रूप में रोका जाना चाहिए। मगर इसके लिए बनी संस्थाएं भी इसमें नाकाम रही हैं। दुनिया में हर समय कहीं न कहीं युद्ध चल रहा है, जातीय संघर्ष, गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है। धार्मिक विद्वेष की वजह से तनाव और पलायन की स्थितियां पैदा होती रहती हैं।

इससे स्पष्ट है कि सत्ताएं अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के मकसद से भी कुछ संघर्षों को बढ़ावा देती रहती हैं। मगर सत्ताधीशों की सनक और वर्चस्ववादी रवैए के चलते जिन लोगों के घर उड़ जाते हैं, जिनके परिवार के लोग मारे जाते हैं, उन्हें अपना बसा-बसाया संसार छोड़ कर किसी अपरिचित जगह पर भटकने को मजबूर होना पड़ता है, उनकी पीड़ा को कौन समझेगा। अब अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का स्वरूप बदलने पर विचार जरूरी हो गया है।