प्रचार समाप्त होने के साथ आई यह खबर फिर निराश करती है कि निर्वाचन आयोग ने इस दौरान कुल तीन सौ पचहत्तर करोड़ रुपए की नगदी जब्त की है। दूसरी ओर, प्रवर्तन निदेशालय ने राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद दो सौ अठासी करोड़ रुपए की संपत्ति कुर्क की।

यह स्थिति तब है जब पिछले कुछ चुनावों से प्रलोभन से मुक्त चुनावों पर काफी जोर दिया जाता और इसे सभी पार्टियों का समर्थन मिलता रहा है। मगर हकीकत यह है कि जिस पार्टी के पास जितनी आर्थिक सामर्थ्य है, वह उसके मुताबिक मतदाताओं को लुभाने के लिए अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल कर रही है।

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आयोग की ओर से वहां चुनावी खर्च की निगरानी के लिए लगातार कोशिशें की गईं, लेकिन खुद आयोग की कार्रवाई में जो तस्वीर उभरी है, उससे पता चलता है कि चुनावी शुचिता की बातों का उन राजनीतिक दलों के लिए कितना महत्त्व होता है, जो इससे संबंधित मांग करती या फिर सवाल उठाती हैं।

गौरतलब है कि चुनावी खर्च से लेकर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए पैसे खर्च करने पर लगाम लगाने के लिए हर स्तर पर कदम उठाने की बात होती रही है। कर्नाटक में इस चुनाव के मद्देनजर कड़ी और व्यापक निगरानी, पड़ोसी राज्यों के साथ समन्वय के बीच हर स्तर पर जांच की व्यवस्था की गई।

मगर इस दौरान जिस पैमाने पर नगदी, शराब, मादक पदार्थ, कीमती धातुएं और करोड़ों रुपए की अन्य उपहार की चीजें बरामद की गर्इं, वह अलग तस्वीर उजागर करती हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2018 में राज्य में हुए विधानसभा चुनावों के मुकाबले इस बार की बरामदगी में साढ़े चार गुना की बढ़ोतरी हुई है।

सवाल है कि चुनावों में इस प्रवृत्ति पर लंबे समय से रोकथाम की कोशिशों और सख्ती के बावजूद तस्वीर पहले के मुकाबले और बिगड़ती ही क्यों जा रही है। आखिर क्या वजह है कि चुनाव आयोग अपने नियमन को व्यवहार में लागू करने में नाकाम हो रहा है और दूसरी ओर राजनीतिक पार्टियां दिखाने को तो ईमानदारी और नैतिकता का बखान करती हैं, लेकिन चुनावों के दौरान अवांछित तरीके से मतदाताओं को रिझाने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से उन्हें गुरेज नहीं होता।

हाल के वर्षों में सभी दलों ने चुनावों में मुफ्त सेवाएं, सुविधाएं और उपहार मुहैया कराने के वादों और बेलगाम खर्चों को लेकर तीखे सवाल उठाए हैं। इस तरह मतदाताओं को लालच देकर आकर्षित करने और उनका वोट हासिल करने की प्रवृत्ति का समर्थन कोई भी पार्टी नहीं करती। लेकिन अफसोस कि शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी चुनाव प्रचार में अपनी ओर से की गई ऐसी बातों को याद रखती है।

सवाल है कि कर्नाटक में अगर पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार अवैध लेनदेन के लिए पैसे, मादक पदार्थ और अन्य उपहार की वस्तुओं की बरामदगी में साढ़े चार गुना की बढ़ोतरी हुई है, तो इसकी जवाबदेही किस-किस पर जाती है? यह क्यों बढ़ती ही जा रही है? इस मसले पर सवाल उठाने और खुद को पाक-साफ बताने वाली पार्टियों को क्या अपनी ऐसी गतिविधियों पर कभी शर्मिंदगी होती है? आखिर ऐसा क्यों है कि निर्वाचन आयोग और संबंधित महकमे चुनावों में इस तरह की अवांछित, अनैतिक और गैरकानूनी गतिविधियों पर लगाम नहीं लगा पा रहे? अगर यह स्थिति बनी हुई है तो चुनाव होने के बावजूद लोकतंत्र के लिए वास्तव में कितनी जगह बचेगी?