महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक और हिस्सेदारी की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है। इसके लिए अनेक योजनाएं चलाई गईं, कई नियम-कायदों, कानूनों में बदलाव किए गए। मगर अवसर, आय, निर्णय लेने की जगहों पर उनकी पहुंच, राजनीतिक भागीदारी आदि स्तरों पर स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं देखी गई है। अच्छी बात है कि विश्व आर्थिक मंच की इस साल की वार्षिक लैंगिक अंतराल रपट में लैंगिक समानता के मामले में भारत की स्थिति आठ पायदान सुधरी है। एक सौ छियालीस देशों में वह एक सौ सत्ताईसवें स्थान पर पहुंच गया है।
पिछले साल एक सौ पैंतीसवें स्थान पर था। शिक्षा के सभी स्तरों पर पंजीकरण में लैंगिक समानता बढ़ी है। इसने 64.3 फीसद लैंगिक अंतराल को पाट दिया है। हालांकि आर्थिक सहभागिता और अवसरों के मामले में 36.7 फीसद समानता के स्तर पर पहुंचा है। महिलाओं के वेतन और आय के मामले में मामूली वृद्धि हुई है। राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में भारत ने 25.3 फीसद समानता हासिल की है। इस वक्त 2006 के बाद महिला सांसदों की संख्या सर्वाधिक है। निश्चित रूप से इन आंकड़ों से कुछ राहत का अनुभव किया जा सकता है। मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लैंगिक समानता के मामले में यह रफ्तार संतोषजनक नहीं है।
पढ़ाई-लिखाई को लेकर बदली सोच, लेकिन अवसरों में उत्साह नहीं
तुलनात्मक रूप से देखें, तो कई मामलों की तरह लैंगिक समानता के स्तर पर भी हमसे गरीब माने जाने वाले पड़ोसी देश बेहतर स्थिति में हैं। नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और भूटान हमसे बेहतर स्थिति में हैं। शिक्षा के मामले में निश्चित रूप से हमारे देश की लड़कियों ने लड़कों को बराबरी की टक्कर दी है। वार्षिक परीक्षाओं से लेकर कई प्रतियोगिताओं में वे लड़कों से बेहतर प्रदर्शन करती देखी जा रही हैं। शीर्ष के कुछ स्थानों पर वही मौजूद नजर आती हैं। यह निश्चित रूप से पढ़ाई-लिखाई को लेकर लड़कियों के बारे में माता-पिता और समाज की बदली सोच का नतीजा है। मगर जब अवसरों की बात आती है तो वहां ऐसा ही उत्साहजनक वातावरण नहीं है।
तमाम अध्ययनों से जाहिर है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों को कम अवसर उपलब्ध हो पाते हैं। फिर वेतन-भत्तों में भी लड़कों की तुलना में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। दरअसल, लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर लोगों के दृष्टिकोण में उदारता तो जरूर आई है, मगर उनकी योग्यता के आंकलन में वही पुरुषवादी मानसिकता काम आती है। इस वजह से निर्णय वाली जगहों पर उनकी पहुंच मुश्किल से हो पाती है।
महिला सशक्तीकरण का नारा तो अब पुराना हो चला, मगर इस तकाजे पर कभी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया कि बिना राजनीतिक सशक्तीकरण के महिलाओं का वास्तविक सशक्तीकरण संभव नहीं हो पाएगा। विधायिका में तैंतीस फीसद आरक्षण का मामला आज तक दलीय संकीर्णता की वजह से लटका पड़ा है। यहां तक कि राजनीतिक दलों के आंतरिक ढांचे में भी उच्च पदों तक उनकी पहुंच मुश्किल से ही हो पाती है, बेशक वे कार्यकर्ता के रूप में बड़ी तादाद में दिखाई दें। पारंपरिक घरों में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों की कृपा पर निर्भर करती है।
बहुत सारे दकियानूसी परिवारों में खूब पढ़-लिख जाने के बाद भी लड़कियों को नौकरी की इजाजत नहीं दी जाती। ऐसे में विश्व आर्थिक मंच के आंकड़ों में पिछले साल की तुलना में बेशक स्त्रियों की स्थिति कुछ बेहतर दर्ज हुई है, मगर यह सर्वांगीण नहीं है। इस स्थिति को तेजी से बदलने के लिए समाज की मानसिकता को बदलने की जरूरत है।