जनसत्ता 26 सितंबर, 2014: आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न कंपनियों को 1993 से आबंटित किए गए दो सौ अठारह कोयला खदानों में से दो सौ चौदह के आबंटन रद्द कर दिए। जो चार आबंटन बख्श दिए गए, उनमें से एक-एक एनटीपीसी और सेल के पास, और दो बड़ी बिजली परियोजनाओं के पास हैं। अदालत ने एक महीने पहले ही 2010 से पहले के सत्रह बरसों में किए गए आबंटनों को अवैध करार दिया था। तभी इस बात के संकेत मिल गए थे कि अदालत का अंतिम निर्णय क्या हो सकता है। इस फैसले से जहां कैग यानी नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक की रिपोर्ट की पुष्टि हुई है, वहीं कांग्रेस और भाजपा दोनों सबसे बड़ी पार्टियां कठघरे में खड़ी नजर आती हैं। कोयला घोटाले के चलते यूपीए सरकार को काफी फजीहत झेलनी पड़ी, पर अदालत के फैसले से साफ है कि आबंटन में अनियमितताओं का क्रम 1993 से चला आ रहा था। इस दौरान यही दोनों पार्टियां अधिकांश समय सत्ता में रहीं, एक छोटा-सा दौर संयुक्त मोर्चा की सरकारों का भी रहा। सरकारें बदलीं, पर भ्रष्ट राजनीति, नौकरशाही और निजी कंपनियों के निहित स्वार्थों का गठजोड़ हावी रहा और उसके दबाव का ही नतीजा रहा होगा कि पारदर्शिता को ताक पर रख कर आबंटन किए गए।
यों आबंटन के लिए 1992 में ही छानबीन समिति गठित की गई थी, पर उसकी छत्तीस बैठकों में निर्णय की जो प्रक्रियाएं अपनाई गर्इं उनकी कठोर शब्दों में निंदा करते हुए अदालत ने अनेक गंभीर सवाल उठाए हैं। गड़बड़ियों की तरफ कई बार ध्यान दिलाया गया, पर आपत्तियां दरकिनार कर दी गर्इं। 2006 में एक विशेषज्ञ समिति ने आबंटन की प्रक्रिया में सुधार के उपाय सुझाए थे, मगर उन सुझावों पर कोयला मंत्रालय कुंडली मार कर बैठा रहा। 2004 से 2009 के बीच मेहरबानी लुटाने की तरह पहले से ज्यादा तेजी से आबंटन किए गए। इस दरम्यान कोयला मंत्रालय तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भी रहा। लेकिन मनमानी पर अंकुश नहीं लग सका। खुद मंत्रालय के सचिव का कहना था कि नीलामी का तरीका अपनाया जाए, पर उनकी राय खारिज कर दी गई। नीलामी की प्रक्रिया 2010 में जाकर अपनाई गई, पर तब तक कोयला जैसी राष्ट्रीय संपदा की लूट की कहानी बहुत लंबी हो चुकी थी। अगर घोटाले की सीबीआइ जांच पर सीधे अदालत की नजर न होती, तो क्या पता बहुत सारी हकीकत पर परदा पड़ जाता। इस निगरानी के बावजूद बहुत सारी फाइलें गायब हो गर्इं। मोटे तौर पर यह घोटाला 2-जी मामले जैसा ही है। अदालत का ताजा फैसला भी वैसा ही आया है जैसा दूरसंचार घोटाले की बाबत आया था।
अदालत ने जिस तरह अब कोयला खदानों के आबंटन रद््द किए हैं, उसी तरह 2-जी घोटाले से जुड़े एक सौ बाईस लाइसेंस खारिज कर दिए थे। तब भी अदालत के फैसले को उद्योग जगत के लिए झटका बताया जा रहा था, एक बार फिर वैसी ही बातें कही जा रही हैं। लेकिन नियमों और तय प्रक्रियाओं को ताक पर रख कर किए गए सरकारी निर्णय उद्योग जगत का भी भला नहीं कर सकते, इससे बस राजस्व के नुकसान, पक्षपात और संसाधनों की लूट को बढ़ावा मिलता है। कुछ लोग फैसले को कोयले की आपूर्ति और इस्पात और बिजली उत्पादन आदि के लिए अचानक आए संकट के रूप में देखते हैं। पर इस बात का उनके पास क्या जवाब है कि आबंटन मिल जाने के बरसों बाद भी कई कंपनियों ने कोयले की निकासी शुरू नहीं की। आज बिजलीघरों की दुर्दशा की एक बड़ी वजह कोयला खदानों के आबंटन में बरस-दर-बरस चली धांधली ही है। सर्वोच्च अदालत के फैसले को एक सबक की तरह लिया जाना चाहिए। वह सबक यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल की पारदर्शी नीतियां बनें, नियमों और प्रक्रियाओं का कड़ाई से पालन हो।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta