जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2014: पर्यावरणविद बहुत पहले से समुद्रतटीय वनों के संरक्षण के लिए आवाज उठाते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट ने भी ऐसे वनों की हालत को लेकर चिंता जताते हुए उन्हें बचाने का आह्वान किया है। यों सब तरह के जंगल तेजी से कटे हैं, पर यह रिपोर्ट बताती है कि मैंग्रोव वनों के नष्ट होने की रफ्तार कहीं ज्यादा रही है। सामान्य वनक्षेत्रों की तुलना में तटीय वन तीन से पांच गुना ज्यादा तेजी से कट रहे हैं। इस रिपोर्ट की अहमियत इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र का दायरा बढ़ने का अंदेशा जताया जा रहा है। मैंग्रोव वन समुद्र और थल के बीच बफर क्षेत्र का काम करते हैं। वे समुद्री भूकम्प या चक्रवात के समय रक्षक की भूमिका निभाते हैं; उनकी मौजूदगी ऐसी आपदा का असर कम कर देती है। इंडोनेशिया, श्रीलंका, भारत में आई सुनामी के जिन इलाकों में मैंग्रोव वन बचे हुए थे, वहां लहरों का कहर कम रहा। ये वन प्राकृतिक आपदा में प्रहरी का काम तो करते ही हैं, हमेशा से तटीय आबादी के लिए र्इंधन के स्रोत और आजीविका का सहारा भी साबित हुए हैं। इसके साथ ही ये जंगल जलीय और स्थलीय, दोनों तरह की बहुत-सी जीव-प्रजातियों के आश्रय भी रहे हैं। लेकिन इनके अनियंत्रित दोहन ने तटीय आबादी के साथ ही बहुत-सी वन्य प्रजातियों के लिए भी खतरा पैदा कर दिया है। अगर यही सिलसिला जारी रहा, तो संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि अगले सात-आठ दशक में मैंग्रोव नाममात्र को बचेंगे। यों इस रिपोर्ट ने होने वाले नुकसान का आर्थिक हिसाब भी लगाया है, पर ज्यादा बड़ा सवाल पारिस्थितिकी के क्षरण का है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती।
भारत पहले ही इस मामले में बहुत कुछ खो चुका है। खुद एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक पिछली शताब्दी में देश का मैंग्रोव आवरण चालीस फीसद कम हो गया। भारत के मैंग्रोव वन मुख्य रूप से इसके पश्चिमी और पूर्वी समुद्रतटीय क्षेत्रों और अंडमान एवं निकोबार में हैं। लेकिन इन्हें गंवाने की गति का अंदाजा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1987 से 1997 के बीच, एक दशक में अंडमान एवं निकोबार में बाईस हजार चार सौ हेक्टेयर मैंग्रोव वन नष्ट हो गए। यह सब कुदरती तौर पर नहीं, अंधाधुंध दोहन के चलते हुआ है। यही हाल सुंदरबन का भी है, जिसका एक हिस्सा भारत में आता है और बाकी बांग्लादेश में। वहां के मैंग्रोव वनों के भविष्य की कीमत पर बांग्लादेश ने तेरह सौ मेगावाट की बिजली परियोजना स्थापित की। दुनिया भर के पर्यावरणविदों की चेतावनी पर आखिरकार अमेरिका और विश्व बैंक ने उस परियोजना की वित्तीय मदद से हाथ खींच लिए। भारत में तटीय वनों के संरक्षण के मकसद से 1976 में पर्यावरण मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय मैंग्रोव समिति गठित हुई थी। फिर मैंग्रोव वनों के सर्वेक्षण, सीमांकन जैसेकाम हुए।
पर समिति की ज्यादातर सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं। सुनामी के कड़वे अनुभव के बावजूद तटीय जंगलों को बचाने की कोई कारगर योजना नहीं दिखती, उलटे पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर समुद्रतटीय नियमन कानून को और नरम बना दिया गया। पर्यावरणीय तकाजों की अनदेखी करते हुए नदियों के किनारे भी अतिक्रमण और बेजा निर्माण का सिलसिला चलता रहा है, जिसका भयावह नतीजा पिछले साल उत्तराखंड में और हाल में जम्मू-कश्मीर में हम देख चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट एक गंभीर चेतावनी है, जिसे अनसुना नहीं किया जाना चाहिए।
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