जनसत्ता 11 नवंबर, 2014: केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार जरूरी था, क्योंकि कई मंत्रियों के पास अतिरिक्त प्रभार थे। रविवार को इक्कीस नए मंत्रियों के शपथ लेने के साथ ही मोदी मंत्रिपरिषद की सदस्य-संख्या छियासठ तक पहुंच गई है। वाजपेयी सरकार और पिछली यूपीए सरकार में भी मंत्रियों की तादाद इससे अधिक थी, जिसकी एक बड़ी वजह यही थी कि उन्हें गठबंधन का खयाल रखना था। हालांकि राजग अब भी है, मगर मोदी गठबंधन के दबाव से मुक्त हैं। तेलुगू देशम के प्रतिनिधि को छोड़ दें, तो इस विस्तार में सहयोगी दलों को जगह नहीं मिली। शिवसेना से महाराष्ट्र में चल रही तकरार का असर केंद्र में भी चरम पर पहुंच गया। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद फिर से दोनों दलों के बीच मेलमिलाप की जो संभावना दिख रही थी, वह खत्म होने के कगार पर है। चार बार लोकसभा में शिवसेना का प्रतिनिधित्व कर चुके सुरेश प्रभु कैबिनेट मंत्री बनाए गए, पर उससे कुछ घंटे पहले उन्होंने शिवसेना छोड़ कर भाजपा की सदस्यता ले ली।
लोकसभा चुनाव के समय राजद छोड़ कर आए रामकृपाल यादव और कांग्रेस छोड़ कर आए चौधरी वीरेंद्र सिंह को भी मंत्रिमंडल में जगह मिल गई है। पर कई अच्छे फैसले भी हुए हैं। जैसे, मनोहर पर्रीकर, राजीव प्रताप रूडी, जयंत सिन्हा को मंत्रिपरिषद में जगह मिलना। इससे पहले रक्षा मंत्रालय का प्रभार वित्तमंत्री अरुण जेटली के पास था। मगर वित्तमंत्री के तौर पर ही उनकी व्यस्तताएं काफी हैं। फिर, अगले आम बजट की तैयारियां भी शुरू हो चुकी हैं। पर्रीकर अपनी सादगी के लिए जाने जाते हैं और उनकी छवि साफ-सुथरी है। लेकिन क्या यह कसौटी निरपवाद रूप से लागू की गई? गिरिराज सिंह पर आय से अधिक संपत्ति का आरोप है, जुलाई में पटना स्थित उनके घर से एक करोड़ बीस लाख रुपए बरामद हुए थे।
वे अपने विवादास्पद बयानों के लिए भी जाने जाते हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि मोदी-विरोधियों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। इस पर किरकिरी हुई तो पार्टी ने उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया। गिरिराज सिंह को पुरस्कृत कर मोदी ने क्या पार्टी को यह संदेश देना चाहा है कि उनके प्रति वफादारी ज्यादा मायने रखती है? फिर, कांग्रेस-संस्कृति से अलग राह पर चलने पर दावा वे कैसे कर सकते हैं? मंत्रिपरिषद के विस्तार में बिहार को सबसे ज्यादा तरजीह मिली है, इसलिए कि वहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। पर राजस्थान से एक भी कैबिनेट मंत्री नहीं है, जिस राज्य में भाजपा को लोकसभा की सभी पच्चीस सीटें हासिल हुर्इं। क्षेत्रीय असंतुलन के और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं।
मंत्रालयों के बंटवारे के कई फैसलों ने भी चौंकाया है। अगर रेलमंत्री के रूप में सदानंद गौड़ा नाकाम माने गए तो कानूनमंत्री के तौर उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है? हर्षवर्धन डॉक्टर हैं, पर उनसे स्वास्थ्य मंत्रालय लेकर जेपी नड््डा को दे दिया गया। अगर एम्स के सतर्कता अधिकारी को हटाए जाने पर उठे विवाद के कारण हर्षवर्धन का विभाग बदला गया तो उसकी कमान नड््डा को सौंपे जाने का निर्णय कैसे उचित कहा जा सकता है, जिन्होंने संबंधित अधिकारी को हटाने के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी? फिर, स्मृति ईरानी का मंत्रालय क्यों नहीं बदला गया, जिन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी दिए जाने पर शुरू से सवाल उठते रहे हैं? अल्पसंख्यक चेहरे के तौर पर मुख्तार अब्बास नकवी को लिया गया, मगर उन्हें न तो कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला न स्वतंत्र प्रभार। वे राज्यमंत्री बनाए, उसी मंत्रालय में, जिसकी बागडोर पहले से अल्पसंख्यक समुदाय के मंत्री के हाथ में है।
पुनर्गठन में बेशक कई उपयुक्त चेहरों को जगह मिली है, पर मोदी ने अपने प्रति वफादारी और जाति-समुदाय के वोटों के गणित को भी अहमियत देने में तनिक संकोच नहीं किया है।
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