जनसत्ता 23 सितंबर, 2014: जिस दौर में ईमानदारी को दुर्लभ गुण माना जाने लगा हो, सौ-दो सौ रुपए के लिए हत्या तक की घटनाएं सामने आ रही हों, अगर चौबीस लाख रुपए आसानी से ले जाने के मौके के बावजूद किसी व्यक्ति के मन में तनिक भी लोभ न पैदा हो तो यह निश्चित रूप से आश्चर्य की बात है। समाज के किन्हीं गुमनाम कोनों में खड़े ऐसे ही लोग दुनिया में नैतिकता और इंसानियत में भरोसा बचाए रखते हैं।
घटना आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद की है। बीते शुक्रवार को बाईस वर्षीय शेख लतीफ़ अली अपने खाते में मौजूद कुल पांच सौ में से दो सौ रुपए निकालने स्टेट बैंक आॅफ हैदराबाद के एक एटीएम पर गया। पैसे निकालने के क्रम में मशीन के किनारे का एक दरवाजा खुल गया और उसमें से सारे नोट बाहर गिर गए। वहां न कोई सुरक्षा-गार्ड तैनात था न ही सीसीटीवी कैमरा लगा था। यानी चुपचाप सुरक्षित तरीके से ढेर सारी रकम ले जाने के लिए लतीफ़ के सामने पूरा मौका था। लेकिन उसके भीतर पल भर के लिए भी ऐसा खयाल नहीं आया और उसने बाहर खड़े अपने साथियों से सुरक्षा गार्ड को खोजने के लिए कहा। गार्ड के न मिलने पर पुलिस को फोन करके सारी स्थिति बताई। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि इतने सारे रुपए देख कर न सिर्फ लतीफ़ के भीतर लालच नहीं आया, बल्कि उसके बेरोजगार दोस्त भी उसे कुछ गलत करने के लिए उकसाने के बजाय उसकी ईमानदारी में सहभागी बने। यह पुलिस और सबसे ज्यादा उस बैंक के लिए भी राहत की बात थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन युवकों ने इससे उलट व्यवहार किया होता तो बैंक और उसके कर्मचारी की लापरवाही का अंजाम क्या हो सकता था। हैदराबाद पुलिस ने उचित ही लतीफ़ को सम्मानित करने का फैसला किया है।
कभी-कभार इस तरह की खबरें सामने आती रहती हैं कि किसी व्यक्ति ने लाखों रुपए के आभूषण या नकदी मिलने पर उसके मालिक को खोज कर लौटा दिए। इस तरह की ईमानदारी अण्णा आंदोलन के दौरान एक आॅटो चालक ने पेश की थी, जिसे उस आंदोलन के नैतिक असर के रूप में भी देखा गया। लेकिन बेईमानी के किस्से ही बहुतायत में देखने को मिलते हैं। दूसरे कई देशों में जरूर ईमानदारी एक आदत की तरह कायम है। मसलन, जापान में सुनामी के चलते अपना घरबार छोड़ कर दूसरी जगह चले गए लोग जब लौटे तो उनका कोई सामान चोरी नहीं गया था। जबकि हमारे यहां सांप्रदायिक दंगों या किसी दुर्घटना जैसी स्थिति में भी लोगों की मदद करने के बजाय कीमती सामान को हड़पने के वाकये आम हैं।
इसी से समाज में यह धारणा बनती है कि ईमानदारी और नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। यही नहीं, इन मूल्यों पर चलने वालों को अव्यावहारिक समझा जाने लगा है। विडंबना यह भी है कि अगर कोई व्यक्ति बेईमानी या धोखाधड़ी के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। भ्रष्ट लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकने वालों के लिए जान का जोखिम तक पैदा कर देते हैं। मंजुनाथ, सत्येंद्र दुबे और कई आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्याएं इसी का उदाहरण हैं। इस सबके बावजूद ईमानदारी की प्रेरक घटनाएं सामने आती रहती हैं, जो बताती हैं कि उम्मीद का एक कोना समाज में बचा हुआ है।
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