जनसत्ता 2 अक्तूबर, 2014: प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद अमेरिकी नेतृत्व से रूबरू होने का नरेंद्र मोदी का यह पहला मौका था। निश्चय ही उनकी अमेरिका यात्रा से दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने की कोशिशें परवान चढ़ी थीं, पर उसके दूसरे कार्यकाल में वैसी गरमाहट नहीं रही। मोदी की इस यात्रा ने उस ठहराव को तोड़ा है। ओबामा से उनकी बातचीत से पहले दोनों पक्षों के कुछ चुनिंदा लोगों की वार्ता हुई, फिर दोनों तरफ के प्रतिनिधिमंडल की। इसके बाद दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने आपसी संबंधों को दिशा-निर्देशक खाका देने की पहल की, जिसकी विधिवत अभिव्यक्ति उनके साझा लेख में हुई है। अमेरिकी अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में प्रकाशित इस लेख का लब्बोलुआब यह है कि दोनों देशों के संबंध मजबूत, विश्वसनीय और स्थायी हैं, पर उन्हें अभी बहुत-सी संभावनाओं को हकीकत में बदलना बाकी है। लेकिन तमाम खुशनुमा बातों के बावजूद ऐसे कई मसले हैं जिन पर भारत और अमेरिका का रुख एक-दूसरे को नहीं भाता।
अमेरिका की निगाह में भारत का एटमी जवाबदेही कानून परमाणु सहयोग करार की राह का रोड़ा है। जब भारतीय वायुसेना ने अमेरिका के बजाय फ्रांस से लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा किया, तो अमेरिका ने अपनी नाराजगी जताने में कोई संकोच नहीं किया था। विश्व व्यापार संगठन के प्रस्तावित व्यापार सुविधा समझौते पर भारत का राजी न होना भी उसे रास नहीं आया है। भारत ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि वह इस समझौते के खिलाफ नहीं है, पर खाद्य सुरक्षा की अपनी नीति को वह तिलांजलि नहीं दे सकता। बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर भी दोनों देशों के अलग-अलग रुख रहे हैं। आउटसोर्सिंग को सीमित करने वाला कानून बनाने के अमेरिकी इरादे ने भारत के आइटी उद्योग में आशंकाएं पैदा की हैं। ऐसे में मैत्री की नई ऊर्जा पैदा करना आसान नहीं था। इसके लिए मोदी ने कई जतन किए। अमेरिकी नागरिकों के लिए भारत पहुंचते ही वीजा मिलने की सुविधा देने की घोषणा की। ओबामा से मुलाकात के पहले उन्होंने अमेरिका की विदेश संबंध परिषद को संबोधित किया और वैश्विक कारोबार वाली कुछ दिग्गज अमेरिकी कंपनियों के प्रमुखों से भी वे मुखातिब हुए। इन सभी मौकों पर दोनों तरफ व्यापार और निवेश की बाबत नई दिलचस्पी का इजहार हुआ। मोदी सरकार के आने के बाद अमेरिका समेत दुनिया के बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में यों भी भारत से व्यापार की संभावनाओं को लेकर उत्सुकता का माहौल रहा है। अमेरिका रवाना होने से पहले मोदी सरकार ने रक्षा और बीमा क्षेत्र में बाहरी निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला करके यह संकेत दे दिया था कि वह बाहरी निवेशकों के लिए कहीं अधिक उदार है।
संभव है अब अमेरिकी उद्योगपति भारत में पहले से ज्यादा रुचि दिखाएं। पर क्या भारत के लिए भी अमेरिका में अवसर बढ़ेंगे? क्या अमेरिका आउटसोर्सिंग संबंधी अपने प्रस्तावित कानून पर पुनर्विचार करेगा? क्या वह भारत के सेवा क्षेत्र के लिए अपने दरवाजे खोलने के मोदी के प्रस्ताव पर राजी होगा? क्या वह आव्रजन संबंधी नियमों को लचीला बनाएगा? ऐसे कई सवाल हैं जिन्हें भारत-अमेरिकी संबंधों के मद्देनजर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मोदी और ओबामा की बातचीत में आपसी मुद्दों के अलावा अनेक अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी चर्चा हुई। अमेरिका इस वक्त इराक और सीरिया में आइएसआइएस से निपटने में लगा हुआ है। उसकी कोशिश ज्यादा से ज्यादा देशों को इस मुहिम में शामिल करने की है। हालांकि मोदी ने भी आइएस को एक बड़ा खतरा बताया, पर ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि भारत इस मामले में अमेरिकी कूटनीति का हिस्सा बन सकता है। अमेरिका के लिए रणनीतिक रिश्ते का मतलब जो हो, भारत को इस पर अपने हितों के मुताबिक सोचना होगा।
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