प्रशासनिक अधिकारियों की आम लोगों से दूरी इसीलिए बढ़ती गई है कि वे अपने ओहदे के अहंकार से बाहर निकल ही नहीं पाते। अधिकारी प्राय: अपने आसपास आतंक का ऐसा घेरा बनाए रहते हैं कि लोग उन तक सामान्य तरीके से पहुंच ही नहीं पाते। अगर किन्हीं स्थितियों में वे आम लोगों के बीच घिर जाते हैं या मजबूरी में उन्हें उनके बीच जाना पड़ता है, तब भी उनकी कोशिश यही रहती है कि उनके रुतबे का दबदबा कायम रहे।
दो दिन पहले ट्रक चालकों की हड़ताल के समय मध्यप्रदेश में शाजापुर के जिलाधिकारी ने भी इसी प्रवृत्ति के चलते अपनी हनक दिखाते हुए चालकों की ‘औकात’ पर सवाल खड़े कर दिए। इसे लेकर खासा बवाल हुआ। अच्छी बात है कि राज्य के मुख्यमंत्री ने मामले का संज्ञान लेते हुए तत्काल जिलाधिकारी को वहां से हटा दिया। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार अधिकारियों से ऐसी भाषा की अपेक्षा नहीं करती और न बर्दाश्त कर सकती है।
न जाने दूसरे अधिकारियों ने इस प्रकरण से क्या सबक लिया है। मगर इससे एक बार फिर यह सवाल गाढ़ा हुआ है कि लोकसेवक आखिर कब लोक की सेवा का अपना कर्तव्य समझे और आम लोगों से तालमेल बिठा कर अपने सामाजिक कल्याण के दायित्व का निर्वाह सीखेंगे।
प्रशासनिक अधिकारी आमजन और सरकार के बीच एक मजबूत कड़ी होते हैं, जो न सिर्फ सरकारी योजनाओं को सही और प्रभावी ढंग से लागू करते, बल्कि स्थानीय समस्याओं की तरफ सरकार का ध्यान भी आकर्षित करते हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि लोगों के बीच रह कर उनकी समस्याओं को सुने-समझेंगे और उनके समाधान का हर संभव प्रयास करेंगे।
मगर स्थिति यह है कि आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद जिलाधिकारियों की औपनिवेशिक मानसिकता बदल नहीं पाई है। वे जनता का सेवक बन कर काम करने के बजाय शासक बन कर रहना ज्यादा पसंद करते हैं। स्थिति यह है कि अगर कोई उनके खिलाफ अंगुली उठा देता या उठाने का प्रयास करता है, तो वे उसके दमन पर उतर आते हैं। इस तरह भय का वातावरण बना कर मनमाने ढंग से काम करने की कोशिश करते हैं।
प्रशासन से पारदर्शिता गायब है। यही वजह है कि शाजापुर के जिलाधिकारी ने ट्रक चालकों को भय दिखा कर आंदोलन से दूर हटाने का प्रयास किया। जबकि उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे आंदोलनकारियों की बात सुनें और उनकी मांगों पर समुचित कार्रवाई का भरोसा दिलाएं। मगर नौकरशाही में ऐसी सलाहियत शायद सिरे से गायब होती जा रही है।
प्रशासनिक सुधार संबंधी अनेक सुझाव समय-समय पर सरकारों को सौंपे गए, मगर उन्हें अमली जामा पहनाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि सत्तापक्ष अपनी मंशा के अनुरूप नौकरशाही का इस्तेमाल करता रहा है। प्रशासनिक अधिकारियों में भी सत्ता से करीबी कायम कर ‘लाभ’ की जगहों पर पहुंचने की होड़ देखी जाती है।
मध्य प्रदेश के जिस जिलाधिकारी को अपदस्थ किया गया, वे भी इस मानसिकता से मुक्त नहीं माने जा सकते। उन्हें भरोसा रहा होगा कि ट्रक चालकों को अपनी धौंस से काबू में कर लेंगे, तो सत्तापक्ष पर उनका प्रभाव बढ़ जाएगा। सत्ता और प्रशासन के बीच इस गठजोड़ को लंबे समय से लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत माना जाता रहा है। मध्यप्रदेश की नवनिर्वाचित सरकार ने एक जिलाधिकारी के प्रति कठोर कदम उठा कर नौकरशाही को अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन करने का संदेश तो दिया है, मगर देखना है, यह कितना टिकाऊ साबित होता है।