झारखंड में जिस तेजी से राजनीतिक घटनाक्रम बदले हैं, वह एक तरह से अप्रत्याशित है। हालांकि पिछले कुछ समय से जिस तरह प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से पूछताछ की खबरें आ रही थीं, उसमें लगातार इस बात की आशंका बनी हुई थी कि राज्य में सत्ता की तस्वीर बदल सकती है।

मगर हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी और उसके बाद उनकी ओर से चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा के बाद यह साफ हो गया कि फिलहाल झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार के सामने चुनौतियां गहरा गई हैं। नई मुश्किल यह पेश आई कि झामुमो और अन्य सहयोगी दलों के स्पष्ट समर्थन की घोषणा के बाद शुक्रवार को चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री पद की शपथ तो दिला दी गई, मगर विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए दस दिन का समय दे दिया गया।

बीते कुछ वर्षों से सत्ता के लिए सदन में बहुमत साबित करने और दूसरे दलों के विधायकों को तोड़ने की जैसी खबरें सामने आती रही हैं, उसमें किसी पार्टी के भीतर यह आशंका स्वाभाविक है कि कहीं उसके समर्थक विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश न की जाए।

शायद यही वजह है कि झारखंड में झामुमो के नेतृत्व वाले गठबंधन की ओर से पांच फरवरी को विश्वास मत हासिल करने की बात तो कही गई, मगर उसके विधायकों को हैदराबाद ले जाया गया। सवाल है कि अगर किसी पार्टी या समूह ने सरकार बनाने की खातिर पर्याप्त संख्याबल होने का दावा किया है, तो उसे बहुमत साबित करने का मौका देने के लिए बिना किसी बड़ी वजह के लंबा वक्त खींचने की जरूरत क्यों होनी चाहिए।

यह अपने आप में एक बड़ी विडंबना है कि किसी पार्टी या गठबंधन के पास बहुमत के लिए पर्याप्त संख्या में विधायक होने के बावजूद उसके भीतर यह डर बैठे कि उसके सदस्यों की खरीद-फरोख्त हो सकती है और इसलिए सबको किसी दूसरे राज्य के शहर में भेज दिया जाता है। एक तरह से यह सभी दलों की राजनीति और नैतिकता के सामने भी एक तीखा सवाल है कि वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सिद्धांतों को लेकर कितने संवेदनशील हैं।