सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर, विस्तृत और व्यावहारिक बनाने की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद हकीकत यही है कि बहुत सारे लोगों को उसका लाभ नहीं मिल पाता है। सामान्य बीमारियों में भी चिकित्सक इतनी तरह की जांच और दवाएं लिख देते हैं कि उसका खर्च उठाना सामान्य लोगों के लिए कठिन होता है।

जेनेरिक दवाओं की अनिवार्यता और जनऔषधि केंद्र खुलने के बाद भी अनेक दवाओं की कीमतें बहुत सारे लोगों की क्षमता से बाहर हैं। इसे लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे रेखांकित करते हुए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आइएमए को फटकार लगाई है।

पतंजलि आयुर्वेद के भ्रामक विज्ञापन मामले की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने आइएमए से मरीजों को दी जाने वाली महंगी और गैरजरूरी दवाओं तथा अनैतिक कृत्यों पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है। दरअसल, आइएमए ने ही पतंजलि के खिलाफ भ्रामक विज्ञापन देने पर मुकदमा दायर किया था। सर्वोच्च न्यायालय की फटकार को आइएमए कितनी गंभीरता से लेगा, कहना मुश्किल है।

दरअसल, हमारे यहां चिकित्सा व्यवस्था में मनमानी की परत-दर-परत चढ़ती गई है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के लचर होने की वजह से निजी चिकित्सा व्यवस्था लगातार मजबूत होती गई और अब वह एक प्रकार के बड़े दबाव समूह के रूप में काम करने लगी है। उसमें दवा बनाने और जांच करने वाली कंपनियों का भी गठजोड़ है।

आइएमए से अपेक्षा की जाती है कि वह चिकित्सा जगत में चल रही अनियमितताओं पर नजर रखे और उन्हें दूर करने का प्रयास करे, मगर वह खुद इनके लिए एक प्रकार का सुरक्षा कवच तैयार करता नजर आता है। नहीं तो, क्या वजह है कि अनावश्यक दवाएं, जांच लिखी और बेवजह मरीजों को लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रखा जाए।

अनेक निजी अस्पतालों में इलाज पर आए खर्च को लेकर सवाल उठते रहे हैं। आखिर चिकित्सा व्यवस्था को इतनी महंगी और आम जन की पहुंच से दूर क्यों होना चाहिए। अगर सचमुच आइएमए को लोगों की सेहत और सही चिकित्सा की परवाह है, तो उसे आम लोगों की पहुंच से दूर होते जा रहे इलाज की चिंता क्यों नहीं होनी चाहिए।