पिछले कुछ सालों से इस बात पर लगातार बहस चल रही थी कि जघन्य अपराधों में शामिल किसी किशोर को सजा की उम्र क्या तय की जाए। सोलह दिसंबर 2012 को दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ हुई बर्बरता और सामूहिक बलात्कार के बाद यह मुद्दा जोर-शोर से उठा, क्योंकि अपराधियों में एक किशोर भी था। अदालत में चले मुकदमे के बाद बाकी आरोपियों को अपराध के अनुपात में अदालत ने सजा सुनाई, लेकिन नाबालिग को किशोर न्याय अधिनियम की वजह से सिर्फ तीन साल कैद भुगतना पड़ा। इसी को लेकर आम लोगों के बीच आक्रोश था और जघन्य अपराधों में शामिल किशोरों को सजा दिलाने के लिए नाबालिग की उम्र सीमा घटाने की मांग की जा रही थी। अब मंगलवार को राज्यसभा में मंजूरी मिलने के साथ ही किशोर न्याय (संशोधन) अधिनियम, 2014 के लागू होने का रास्ता साफ हो गया है। लोकसभा ने इसे पिछले साल ही पारित कर दिया था। नए कानून के अमल में आने के बाद अब कानून में परिभाषित जघन्य अपराधों के मामले में सोलह साल के किशोरों पर भी वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलेगा। नए प्रावधानों के मुताबिक ऐसे किशोरों को उम्रकैद या फांसी की सजा नहीं दी जा सकेगी। हालांकि इस कानून के तहत नाबालिगों की उम्र सीमा घटाने पर विरोध के स्वर भी उभरे और माकपा सहित कुछ दलों के सांसदों ने भावना के आधार पर कानून न बनाने और विधेयक को प्रवर समिति के पास भेजने की मांग की थी।
दरअसल, नए कानून पर बहस के दौरान जिस तरह की चिंताएं सामने आर्इं, उन्हें भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस मसले पर एक पक्ष का मानना है कि चूंकि जघन्य अपराधों में किशोरों की संलिप्तता बढ़ती जा रही है, लेकिन अपराध की गंभीरता के अनुपात में उन्हें नाममात्र की सजा मिलती है। यह पीड़ितों के साथ अन्याय की तरह है। राज्यसभा में बहस के दौरान महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने भी इस कानून को जरूरी बताते हुए कहा कि ऐसे मामले दिनोंदिन बढ़ रहे हैं। जबकि राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के मुताबिक पिछले लगभग तीन सालों से कुल अपराधों में नाबालिगों की संलिप्तता महज 1.2 फीसद है। दूसरी ओर, कई लोग आज भी यह मानते हैं कि भारत में जेलों और बाल सुधार-गृहों की जो हालत है, उसके मद्देनजर किसी अपराध में शामिल किशोरों को सजा देते हुए इस बात का खयाल रखा जाना चाहिए कि इसका उस पर और फिर समाज के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा।
दुनिया भर में काफी विचार-विमर्श के बाद बाल-अपराधियों को वयस्कों से अलग समझने की वकालत की गई और किसी किशोर के भीतर सुधार की संभावना के मद्देनजर नाबालिग की उम्र अठारह साल तय की गई थी। बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के प्रस्ताव पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए थे। जाहिर है, यह विचार किसी देश की सरकार और समाज को अपनी भावी पीढ़ियों के निर्माण की जिम्मेदारी भी सौंपता है। मगर अपने दायरे में सिमटे समाज और दायित्वों से लापरवाह सरकार कई बार प्रतिकूल हालात में पलने वाले बच्चों-किशोरों की ओर से आंखें मूंद लेती है। जबकि बिना मूल वजहों की पड़ताल किए और उनसे निपटे नाबालिगों के अपराधों में शामिल होने पर काबू पाना मुश्किल बना रहेगा। बहरहाल, अब देश ने कानून के जरिए जघन्य अपराध में शामिल होने की स्थिति में नाबालिग की उम्र-सीमा घटा दी है। लेकिन ज्यादा जरूरी यह है कि सामाजिक माहौल ऐसा बनाया जाए, जिसमें किसी भी वर्ग के बच्चे को आपराधिक संगति या कृत्यों में शामिल होने की नौबत न आए।