कुश्ती महासंघ में यौन उत्पीड़न को लेकर चल रहे आंदोलन के बीच यह चिंताजनक तथ्य उजागर हुआ कि तीस में से पंद्रह खेल महासंघों में व्यवस्थित आंतरिक शिकायत समिति नहीं है। कुश्ती महासंघ समेत पांच खेल महासंघों में आंतरिक शिकायत समिति गठित ही नहीं है। कुछ खेल संघों में समिति तो है, पर उनमें कोई कोई योग्य सदस्य नहीं है। कुछ में कोई बाहरी सदस्य नहीं है। इस पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने खेल संघों से जवाब तलब किया है। यौन उत्पीड़न कानून के तहत हर संस्थान में आंतरिक शिकायत समिति का गठन अनिवार्य है।

विशाखा कानून के तहत यह प्रावधान इसलिए किया गया था कि अगर किसी संस्थान में किसी महिला के यौन उत्पीड़न का प्रयास किया जाता है, तो वह उस समिति के पास अपनी शिकायत दर्ज करा सके। उस समिति को अधिकार दिए गए हैं कि वह दोषी व्यक्ति के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई कर सके। इस व्यवस्था की वजह से संस्थानों, निजी कंपनियों आदि में महिलाओं के साथ पुरुषों के व्यवहार में बदलाव भी देखा गया। कई मामलों में दोषी पाए जाने वाले कर्मचारियों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्रवाई की गई। कइयों को अपनी नौकरी तक गंवानी पड़ी।

मगर हमारे देश में संस्थानों का स्वरूप भी हमारे समाज की तरह का ही है, इसलिए वहां भी पुरुष मानसिकता आड़े आती है। खेल महासंघों में आंतरिक शिकायत समिति गठित न किए जाने के पीछे भी यही मानसिकता काम करती देखी जा सकती है। इन समितियों में संस्थान के भीतर के कुछ ऐसे कर्मचारियों को सदस्य बनाया जाता है, जो यौन उत्पीड़न को रोकने में मददगार साबित हो सकते हैं। उनमें महिला कर्मचारियों को तरजीह दी जाती है।

फिर कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि उन समितियों में कुछ योग्य बाहरी लोगों को भी सदस्य बनाया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए कि संस्थानों के भीतर किसी प्रकार के पक्षपात आदि के चलते शिकायतकर्ता को अन्याय का शिकार न होना पड़े। मगर इन नियमों का पूरी तरह पालन करना तो दूर, कई संस्थान आंतरिक समिति गठित करने की अनिवार्यता को ही धता बताते नजर आते हैं। इसके पीछे का मकसद जाहिर है। न समिति रहेगी, न कोई महिला शिकायत दर्ज कराएगी। फिर यह भी किसी से छिपी बात नहीं है कि कार्यालयों में अपने खिलाफ होने वाले दुर्व्यवहार की शिकायत लेकर महिलाएं अदालत का रुख करने में हिचकती हैं।

हालांकि जिन संस्थानों में आंतरिक शिकायत समिति का गठन किया भी गया है, उनमें से बहुतों में पक्षपात की शिकायतें मिलती हैं। चूंकि समिति में उसी संस्थान के कर्मचारी सदस्य होते हैं, इसलिए उनमें किसी एक के प्रति झुकाव स्वाभाविक है। फिर ये समितियां समझा-बुझा कर दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का प्रयास करती हैं।

इस तरह मामला तो दब जाता है, पर प्रवृत्ति नहीं खत्म हो पाती। पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आंतरिक शिकायत समिति होने से कर्माचारियों पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव काम करता है। अगर कुश्ती महासंघ में सशक्त आंतरिक शिकायत समिति गठित होती, तो महिला खिलाड़ियों को शायद इस तरह अपने उत्पीड़न की पीड़ा को सिसक-सिसक कर सहन न करना पड़ता। उन्हें अपने प्रति हुए दुर्व्यवहार की शिकायत लेकर सड़क पर न उतरना पड़ता। वह समिति मामले को कानूनी ढंग से निपटाने का प्रयास करती। देखने की बात है कि खेल महासंघ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सवाल पर क्या जवाब देते और इस मसले पर कितनी गंभीरता दिखाते हैं।