चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में प्रत्यक्ष कर संग्रह, जिसमें कारपोरेट और व्यक्तिगत दोनों कर समाहित हैं, चौबीस फीसद बढ़ कर 8.98 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया।

इस वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष कर संग्रह 14.10 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान है। निस्संदेह यह सरकार के लिए उत्साहजनक आंकड़ा है। कर संग्रह बढ़ने का अर्थ लगाया जाता है कि कारोबार और लोगों की व्यक्तिगत आमदनी बढ़ रही है। इसके बरक्स जीएसटी में भी उत्साहजनक बढ़ोतरी देखी जा रही है। इससे रोजकोषीय घाटे को पाटने में मदद मिलेगी।

सरकार को विकास परियोजनाओं में कटौती नहीं करनी पड़ेगी। इस आधार पर कह सकते हैं कि देश की आर्थिक स्थिति बहुत बुरी नहीं है। इसी से उम्मीद बनती है कि अगर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मुस्तैदी से काम हो, तो विकास दर को बेहतर बनाने में जल्दी कामयाबी मिल सकती है। मगर हकीकत यह है कि कर संग्रह से अर्थव्यवस्था की बेहतरी का ठीक-ठीक पता नहीं मिलता।

कर संग्रह बढ़ने की कुछ वजहें तो साफ हैं। पिछले कुछ समय से जीएसटी में लगातार बढ़ोतरी की गई है, जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष करों पर भी पड़ा है। जब किसी वस्तु पर जीएसटी बढ़ता है, तो उसी अनुपात में उत्पादन से लेकर वस्तु के उपभोक्ता तक पहुंचने के क्रम में कर बढ़ते जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्थव्यवस्था भी उसी अनुपात में बेहतर हो रही है।

प्रत्यक्ष कर संग्रह कई बार उपभोक्ता पर बढ़े करों का संकेत भी देते हैं। असलियत यह है कि पिछले महीने निर्यात में साढ़े तीन फीसद की गिरावट दर्ज की गई। औद्योगिक उत्पादन दर 2.4 फीसद पर सिमटी हुई है। व्यापार घाटा लगभग दोगुना हो गया है। ऐसे में कर संग्रह में बढ़ोतरी से सरकार को अपने खर्च में कटौती से भले थोड़ी राहत मिल जाए, पर देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में मदद नहीं मिल सकती।

सकल घरेलू उत्पाद की दर पिछले कई सालों से भारी उद्योगों और सेवा क्षेत्र के प्रदर्शन पर निर्भर होती गई है। स्वाभाविक ही इन क्षेत्रों के खराब प्रदर्शन से इसका रुख नीचे की तरफ बना हुआ है। फिर निर्यात के मामले में सुस्ती भारी उद्योगों में उत्साह पैदा नहीं कर पा रही।

कुछ दिनों पहले ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन ने चिंता जताई कि अगले चार सालों तक पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में सुस्ती बनी रहेगी। विश्व व्यापार के मोर्चे पर इस साल भी गिरावट जारी रहेगी। ऐसे में भारत के लिए बाहर के बाजारों में अपनी जगह तलाशना कठिन बना रहेगा। महंगाई पर काबू पाना बड़ी चुनौती है, मगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों का रुख अनिश्चित बना हुआ है।

छोटे, मंझोले और सूक्ष्म उद्योगों की कमर कोरोनाकाल में ही टूट गई थी। वे अभी तक उबर नहीं पाए हैं। इसी क्षेत्र में रोजगार की गुंजाइश अधिक होती है, बड़े उद्योग तो मशीनों पर निर्भर रहते हैं। इसलिए रोजगार के मोर्चे पर कामयाबी नहीं मिल पा रही, इसलिए लोगों की क्रयशक्ति में इजाफा नहीं हो पा रहा। बाजारों में रौनक लौट नहीं पा रही। इस सबके बावजूद अगर प्रत्यक्ष कर संग्रह में बढ़ोतरी हो रही है, तो इसी उत्साह के साथ सरकार को दूसरे मोर्चों पर भी काम करने की जरूरत है।