एक तरफ जलवायु परिवर्तन से उपजा संकट लगातार बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर इससे निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयासों की गति धीमी पड़ रही है। दुनिया भर में हो रहे नए-नए अध्ययन और वैज्ञानिक शोध चेतावनी देते रहे हैं कि अगर समय रहते इस दिशा में प्रभावी उपाय नहीं किए गए, तो निकट भविष्य में इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन का भारत समेत पूरी दुनिया में प्रभाव साफ दिखने लगा है।
ब्राजील के बेलेम में आयोजित काप 30 सम्मेलन में बुधवार को जारी ‘जलवायु जोखिम सूचकांक-2026’ की रपट में कहा गया है कि जलवायु आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित देशों में भारत नौवें स्थान पर है। पिछले तीन दशकों में देश में जलवायु आपदाओं के कारण करीब अस्सी हजार लोगों की जान जा चुकी है। सरकार की ओर से इस संकट से निपटने को लेकर किए जा रहे दावों के बीच ये आंकड़े वास्तव में चिंताजनक है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि सरकारी प्रयासों को अभी और व्यापक करने तथा उन्हें गति देने की जरूरत है।
रपट के मुताबिक, जलवायु आपदाओं से वर्ष 1995 से 2024 तक लगभग 170 अरब अमेरिकी डालर का आर्थिक नुकसान हुआ है। जान-माल का सबसे ज्यादा नुकसान बाढ़, चक्रवात, सूखा और तेज गर्मी के कारण हुआ है। इसके पीछे बढ़ता वैश्विक ताप भी एक बड़ा कारक है, जो जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है। भारत में यह स्थिति निरंतर खतरे का संकेत दे रही है, क्योंकि बार-बार होने वाली मौसमी आपदाओं से जहां विकास की गति कमजोर होती है, वहीं आम लोगों की आजीविका भी प्रभावित होती है।
रपट में कहा गया है कि पिछले वर्ष भारत में भारी बारिश और अचानक आई बाढ़ से अस्सी लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए। हालांकि, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने, कार्बन उत्सर्जन कम करने और वन आवरण बढ़ाने जैसे कई कदम उठाए हैं, लेकिन इन्हें जमीनी स्तर पर प्रभावी तरीके से अमल में लाने की जरूरत है।
अगर वैश्विक स्तर पर बात करें, तो पिछले तीन दशकों में नौ हजार से अधिक मौसमी आपदाओं ने आठ लाख से ज्यादा लोगों की जिंदगी लील ली है। यह बात छिपी नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर उन्हीं विकासशील देशों को झेलना पड़ रहा है, जिनकी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भागीदारी सबसे कम है।
विकासशील देश कमजोर सहन क्षमता और अनुकूलन के सीमित संसाधनों के कारण ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। भारत सहित कई विकासशील देशों में जलवायु आपदाएं सामान्य स्थिति बनती जा रही हैं, जिसके लिए तत्काल और व्यापक वित्त पोषित अनुकूलन उपायों की जरूरत है।
यह जगजाहिर है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देशों का योगदान सबसे ज्यादा है, इसलिए अनुकूलन उपायों को लेकर उनकी जिम्मेदारी भी अधिक होनी चाहिए। उनकी भूमिका सिर्फ वित्तीय सहायता और तकनीकी सहयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें कार्बन उत्सर्जन में कमी और कमजोर देशों के अनुकूलन प्रयासों का समर्थन करना भी शामिल है।
