चेन्नई में बेमौसम की भारी बरसात ने वैसा ही हाल किया है जैसा करीब एक दशक पहले मुंबई में हुआ था। कहा जा रहा है कि इस बारिश ने वहां पिछले सौ साल का रिकार्ड तोड़ दिया। पर जो हुआ और जो हो रहा है उसे बताने के लिए यह तथ्य काफी नहीं है। भारी बरसात का दौर तमिलनाडु में अमूमन हर दस साल पर आता रहा है, लेकिन उसने पहले कभी इतनी भयावह शक्ल अख्तियार नहीं की। अब तक करीब दो सौ लोगों की जिंदगी इस आपदा की भेंट चढ़ चुकी है। बहुत-से मकान ढह गए हैं। हजारों लोगों को बेघरबार होना पड़ा है। सड़कें जलमग्न हैं। वहां रेल और विमान सेवाएं भी फिलहाल ठप हैं। राहत और बचाव के काम में आपदा प्रबंधन की टीमें तो जुटी ही हैं, सेना भी बुला ली गई है और नौसेना को भी तैयार रहने को कहा गया है।

हालात की विभीषिका को देखते हुए गुरुवार को प्रधानमंत्री वहां गए, हवाई मुआयना किया और एक हजार करोड़ रुपए राहत-राशि के तौर पर देने की घोषणा की। मुख्यमंत्री जयललिता ने भी हालात का जायजा लिया। इसमें दो राय नहीं कि चेन्नई की मौजूदा मुसीबत भारी बारिश की देन है। लेकिन यह स्थिति बढ़ रहे पर्यावरणीय संकट और शहरी अनियोजन या कुनियोजन की तरफ भी इशारा करती है। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा आशय या असर है, जलवायु परिवर्तन। इसके चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। उत्तराखंड का जल प्रलय, कश्मीर की बाढ़ और आंध्र में आया चक्रवात आदि उसी के उदाहरण हैं। चेन्नई में भारी बारिश का दौर और फलस्वरूप आई बाढ़ इसी सिलसिले की ताजा कड़ी है। कोढ़ में ख्राज की तरह शहरी कुनियोजन ने हालात और विकट कर दिए हैं।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक चेन्नई में साढ़े छह सौ कुदरती जल भंडारण केंद्र, जिनमें बड़ी झीलें, तालाब और ताल शामिल हैं, नष्ट कर दिए गए हैं। महानगर का सबसे बड़ा मॉल एक झील की बलि चढ़ा कर बना है। अगर जलाशयों और झीलों को न पाटा गया होता, और जल निकासी की फिक्र की गई होती, तो स्थिति इस हद तक न बिगड़ती। जाहिर है, चेन्नई की मौजूदा बरबादी के पीछे बिल्डरों, राजनीतिकों और नौकरशाहों की मिलीभगत का भी हाथ है। निर्माण-कार्यों की मंजूरी देने में नियम-कायदों की अनदेखी होती रही है। यह बात उत्तराखंड और कश्मीर की बाढ़ की बाबत भी सही है और चेन्नई के संदर्भ में भी।

जिस तरह तमाम राज्यों में नदियों के ऐन किनारे तक धड़ल्ले से निर्माण-कार्य होते रहे और तालाबों और झीलों को पाट कर कॉलोनियां बनती रहीं, उसी तरह समुद्रतटीय नियमन कानून का भी लंबे समय से उल्लंघन होता रहा है। कई मामलों में पैसे का खेल रहा होगा। पर एक बड़ा कारण यह भी है कि अनदेखी का नतीजा दूर कहीं भविष्य में अदृश्य होता है, इसलिए निर्णय-प्रक्रिया में शामिल लोगों को ठीक अहसास नहीं होता कि वे कितना बड़ा गुनाह कर रहे हैं। पर अब क्या वे चेतेंगे? कहना मुश्किल है, क्योंकि विकास की मौजूदा अवधारणा अधिक से अधिक शहरीकरण और केंद्रीकरण पर टिकी है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में विकास के इस मॉडल ने ढेर सारी समस्याएं पैदा की हैं। जलवायु संकट से निपटने के उपायों पर माथापच्ची करने के लिए इन दिनों सारी दुनिया से विभिन्न सरकारों के प्रतिनिधि, विशेषज्ञ, कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी जुटे हैं। उन्हें विकास के वैकल्पिक मॉडल पर भी सोचना चाहिए।