फिल्मी दुनिया की कुछ नामचीन हस्तियों के साथ एक कथित हास्य कार्यक्रम के संदर्भ में सेंसर बोर्ड के सदस्य अशोक पंडित की टिप्पणी आपत्तिजनक है। इस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले कुछ अभिनेताओं की फिल्में रिलीज नहीं होने देने की ‘मनसे’ की धमकी भी बेतुकी है। लेकिन हास्य के नाम पर इस शो में जिस तरह के बेहद अश्लील संवाद परोसे गए, किसी के रंग पर फिकरे कसे गए, गंदी गालियों का इस्तेमाल हुआ, महिला कलाकारों पर अभद्र टिप्पणियां की गर्इं, उसे किस दलील पर सही ठहराया जाएगा? किसी सार्वजनिक मंच पर बॉलीवुड की कई मशहूर हस्तियों का लोगों को हंसाने के लिए आपस में अभद्र भाषा में बातचीत करना आधुनिकता के किस पैमाने पर उचित है? अब इस शो पर विवाद उठने के बाद महाराष्ट्र सरकार ने जांच के आदेश दिए हैं। लेकिन क्या यह कोई पहला ऐसा वाकया है जब जानी-मानी हस्तियों ने सार्वजनिक मंचों पर ऐसी आपत्तिजनक भाषा में बात की हो? इस मामले ने हनी सिंह के उन बेहद अश्लील और अभद्र बोल वाले गीतों की याद दिला दी है, जो सोलह दिसंबर, 2012 की बलात्कार और हत्या की बर्बर घटना के बाद सामने आए थे।

आमतौर पर अश्लील या गालियों से भरी भाषा महिलाओं के खिलाफ होती और स्त्री-विरोधी मानसिकता को बल देती है। एक सभ्य समाज आपसी बातचीत में असभ्यता और किसी भी व्यक्ति या समूह के सम्मान को बाधित या अपमानित करने वाली भाषा के इस्तेमाल को बढ़ावा नहीं देगा। आखिर लोगों की भाषा और उनका व्यवहार ही सामाजिक चेहरा बनता है। शायद ही कोई संवेदनशील व्यक्ति इस तरह की भाषा को सही ठहराएगा। लेकिन अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहे हैं जब मनोरंजन के नाम पर आपत्तिजनक और अश्लील संवादों वाली फिल्मों और कार्यक्रमों का प्रदर्शन होता है और उसका वीडियो खुले बाजार में बेचा जाता है। सच यह है कि फिल्मों या सार्वजनिक मंचों पर किसी प्रस्तुति में कोई व्यक्ति गालियों या अश्लील शब्दों का इस्तेमाल होता देखता है तो इससे उसके भीतर की कुंठाएं तुष्ट होती हैं। सामाजिक मनोविज्ञान के इस पहलू को नजरअंदाज करके यह दलील दी जाती है कि अगर ऐसी भाषा या संवाद से किसी को परेशानी है तो वह इन्हें न सुनने या देखने के लिए आजाद है। मगर ऐसा कहने वाले लोग क्या कभी बेहतर सामाजिक प्रशिक्षण और प्रगतिशील सोच के अभाव में पलते-बढ़ते लोगों की सीमा पर विचार कर पाते हैं?

सवाल है कि जो लोग महज अकूत कमाई के लिए ऐसे कार्यक्रमों का निर्माण करते हैं और उसे तमाम लोगों को देखने के लिए खुले बाजार में उतार देते हैं, क्या वह सदियों से स्त्रियों के खिलाफ समाज में गहरे पैठी पितृसत्तात्मक कुंठाओं का कारोबार नहीं है? फिल्में, टीवी धारावाहिक, हास्य कार्यक्रम और गीत-संगीत किसी भी समाज की संस्कृति का हिस्सा होते हैं। लेकिन इनका इस्तेमाल समाज के यथार्थ को विरूपित करने लिए भी किया जाता रहा है।

टीवी और सिनेमा में अश्लीलता और भोंडेपन पर लगाम लगाने के लिए सेंसर बोर्ड है। लेकिन स्वतंत्र रूप से तैयार गीतों के अलबमों या कार्यक्रमों के वीडियो में इस्तेमाल किए गए शब्दों पर नजर रखने के लिए कोई तंत्र नहीं है। ताजा मामले का एक अफसोसनाक पहलू यह भी है कि कार्यक्रम सामाजिक संस्थाओं के लिए धन जुटाने के नाम पर तैयार किया गया। क्या समाज सेवा में लगी संस्थाओं की मदद करने के लिए ऐसे कार्यक्रमों के जरिए धन जुटाया जाएगा, जिनसे आखिरी नुकसान समाज को ही होना है?

 

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