मणिपुर अब भी हिंसा की आग में जल रहा है। राज्य सरकार लगातार अपने शांति प्रयासों की फेहरिश्त पेश और जल्दी ही स्थिति पर काबू पाने के दावे करती आ रही है, मगर पिछले वर्ष मई में भड़की जातीय हिंसा का अभी तक कोई अंत नजर नहीं आता। बुधवार को फिर बिष्णुपुर और चुराचांदपुर जिलों के पर्वतीय इलाकों में दहशतगर्दों ने गोलीबारी की।

सुरक्षाबलों से मुठभेड़ हुई तो चार लोगों बंधक बना ले गए। वे सभी जंगल में लकड़ी काटने गए थे। अब उनमें से तीन लोगों के शव बरामद हुए हैं। ऐसी कई घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। इस तरह लापता लोगों की बाद में लाशें बरामद हुई हैं। अब तक एक सौ अस्सी से ऊपर लोगों के मारे जाने और हजारों के घायल होने की पुष्टि हुई है।

मणिपुर में हिंसा का ताजा दौर इस महीने की पहली तारीख को शुरू हुआ, जब वहां के थौबल इलाके में दो गुटों के बीच हिंसा भड़क उठी और चार लोग मारे गए। हिंसा के बाद वहां प्रतिहिंसा का सिलसिला बना हुआ है। एक समुदाय जब दूसरे के लोगों को मारता है, तो दूसरा भी उस समुदाय पर घात लगा कर हमले करता है। ताजा घटना उसी प्रतिहिंसा का नतीजा है।

मणिपुर का मामला इतना जटिल भी नहीं कि उसे सुलझाना कठिन हो। बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को जनजातीय श्रेणी में शामिल करने की सिफारिश से एक भ्रम पैदा हुआ और हिंसा का दौर शुरू हो गया। कुकी समुदाय की आबादी कम है, मगर पर्वतीय इलाकों के बड़े भूभाग पर उसका अधिकार है। मैतेई इंफल घाटी तक सीमित हैं।

कुकी समुदाय को लगता रहा है कि अगर प्रभावशाली मैतेई को जनजाति का दर्जा मिल गया, तो वे आरक्षित पर्वतीय इलाकों पर कब्जा कर लेंगे। इसलिए वे इसका विरोध करते रहे हैं। उच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार मैतेई को जनजाति का दर्जा देने पर विचार कर सकती है, तो कुकी लोगों को लगा कि सरकार ऐसा करने ही जा रही है। हिंसा भड़क गई, तो राज्य सरकार ने पहले बंदूक के बल पर उसे रोकने की कोशिश की।

मगर जैसे ही थोड़ी शिथिलता बरती गई, हिंसा इस कदर फैली कि उस पर काबू पाना कठिन हो गया। दोनों समुदायों के बहुत सारे पूजा स्थलों पर हमले किए गए, महिलाओं के साथ बलात्कार कर उन्हें नंगा घुमाया गया। हालांकि तब राज्य सरकार ने सफाई दी थी कि मैतेई को जनजाति का दर्जा देने का उसका कोई इरादा नहीं है।

अगर सरकार सचमुच कुकी और मैतेई के बीच हिंसक संघर्ष को रोकने के प्रति संजीदा होती, तो दोनों समुदायों के साथ बैठ कर इस गलतफहमी को पहले ही दूर कर लेती। मगर वह ज्यादातर मौकों पर शिथिल और पक्षपातपूर्ण ही देखी गई। शांति समझौते के लिए जो समिति गठित की गई, वह भी महज दिखावा साबित हुई। बहुत सारी शिकायतों की प्राथमिकी तक दर्ज नहीं की गई।

उपद्रवी पुलिस के शस्त्रागारों से भारी मात्रा में हथियार लूट ले गए और उनका इस्तेमाल हिंसा में करते रहे। अभी तक ठीक-ठीक ब्योरा नहीं आ सका है कि कितने हथियार बरामद हो सके हैं। केंद्र सरकार का रवैया भी मूक दर्शक का ही देखा गया। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेते हुए जांच समिति गठित करनी और सुरक्षा व्यवस्था पर निगरानी बिठानी पड़ी। चिंता की बात है कि उन सबका भी कोई असर नजर नहीं आ रहा।