भारत रत्न से संबंधित ताजा घोषणा पर शायद ही किसी को हैरत हुई हो। अटल बिहारी वाजपेयी को यह सम्मान देने की मांग भाजपा करती आई थी। साल भर पहले जब सचिन तेंदुलकर और वैज्ञानिक सीएन राव को भारत रत्न देने की घोषणा हुई तब भाजपा ने अपनी मांग और जोर-शोर से दोहराते हुए कहा था कि वह सत्ता में आने पर वाजपेयी को इस सम्मान से जरूर विभूषित करेगी। वैसा ही हुआ। वाजपेयी के नब्बेवें जन्मदिन से एक रोज पहले उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक अलंकरण देने की घोषणा की गई। इसी के साथ महामना मदन मोहन मालवीय को भी भारत रत्न के लिए चुना गया। यह पहला मौका नहीं है, जब किसी को मरणोपरांत यह सम्मान मिला हो। सरदार वल्लभ भाई पटेल, आंबेडकर जैसे कई नाम इस श्रेणी में शामिल हैं। वाजपेयी और महामना मालवीय को इसका हकदार क्यों माना गया, इसकी बाबत कई बातों का हवाला दिया जा सकता है। देश की राजनीति में वाजपेयी ने जो जगह बनाई उसके बारे में सब जानते हैं। वे अपनी पार्टी के पहले प्रधानमंत्री तो थे ही, गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों में उन्हीं का कार्यकाल सबसे लंबा रहा।

वे एक ऐसी पार्टी के नेता थे, जिसके साथ कोई हाथ मिलाना पसंद नहीं करता था। पर यह वाजपेयी की अपनी स्वीकार्यता थी कि राजग के रूप में चौबीस पार्टियों का गठबंधन बना और भाजपा पहली बार केंद्र की सत्ता में आ सकी। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने पाकिस्तान से संबंध सुधार की ऐतिहासिक पहल की। सांसद और विपक्ष के नेता के तौर पर भी उनके योगदान के बारे में कई बातें कही जा सकती हैं। महामना मालवीय की गिनती स्वतंत्रता संग्राम के बड़े नामों में होती है।

हालांकि वे हिंदू महासभा के शुरुआती नेताओं में थे, पर आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण योगदान शिक्षा के क्षेत्र में है, काशी हिंदू विश्वविद्यालय उन्हीं की देन है। क्या अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के संस्थापक को भी इस सम्मान का हकदार माना जाएगा? कांग्रेस पर तंज कसते हुए भाजपा यह सवाल उठा चुकी है कि सरदार पटेल को उनके निधन के इकतालीस साल बाद भारत रत्न के काबिल समझा गया। महामना मालवीय को भी उनकी मृत्यु के उनहत्तर साल बाद यह सम्मान मिला है। भाजपा जब पिछली बार छह साल केंद्र की सत्ता में रही, तो उसे मालवीयजी को भारत रत्न से विभूषित करने की बात क्यों नहीं सूझी? क्या यह फैसला अब इसलिए किया गया कि नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी है?

मालवीयजी को चुनने के पीछे हिंदू महासभा की पृष्ठभूमि भी शायद एक वजह रही हो। पर यह भूलना नहीं चाहिए कि वे गांधीजी का कितना सम्मान करते थे, और महामना की उपाधि उन्हें गांधीजी ने दी थी। विभिन्न दलों के अपने-अपने नायक हैं; पुरस्कार, अलंकरण और सम्मान संबंधी निर्णयों में भी उनका यह रुझान दिखता रहा है। सुभाषचंद्र बोस को शायद उनकी मृत्यु को लेकर रहे विवाद के कारण भारत रत्न नहीं दिया जा सका। पर दिवंगत शख्सियतों को भी यह सम्मान देने की परंपरा बनी हुई है तो भगतसिंह, राममनोहर लोहिया जैसे नाम क्यों रह गए, जबकि एमजी रामचंद्रन, गुलजारी लाल नंदा जैसे राजनेता इससे विभूषित किए गए जिनका कद उतना बड़ा नहीं था।

अब तक किसी साहित्यकार को यह सम्मान क्यों नहीं मिला है? पुरस्कारों और सम्मानों का इस्तेमाल राजनीतिक संदेश देने के लिए होता रहा है। ताजा फैसला भी इसका अपवाद नहीं कहा जा सकता। पर हमें यह भी समझना होगा कि पुरस्कार, अलंकरण और उपाधि-सम्मान के पैमाने से ही किसी के योगदान को न आंका जाए।

 

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