आमतौर पर जब भी आतंकवाद की बात होती है, तो लश्कर-ए-तैयबा और वैसे अन्य गुटों का नाम लिया जाता है जो सीमापार से संचालित होते हैं। लेकिन देश के भीतर भी ऐसे कई संगठन हैं जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं। असम में उग्रवादी हिंसा का सिलसिला थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के साथ कई दशकों से जारी है। इसे अंजाम देने में सबसे प्रमुख नाम उल्फा का रहा है। उल्फा के कई पदाधिकारियों की गिरफ्तारी और फिर इसके मुख्य धड़े के शांति प्रक्रिया में शामिल होने के बाद यह माना जाता रहा है कि असम को उग्रवादी हिंसा से काफी हद तक निजात मिल गई है। मगर इस धारणा पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है। दरअसल, चाहे उल्फा हो या एनडीएफबी यानी नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैंड, इनके वैसे धड़े जो शांति-समझौतों में शामिल नहीं हुए, अब भी हथियारबंद हैं और जब-तब अपहरण, हत्या और धमाकों को अंजाम देते रहते हैं। कभी इनके निशाने पर सुरक्षाकर्मी होते हैं, तो कभी साधारण निरीह लोग। असम के सोनितपुर और कोकराझार जिलों में चार अलग-अलग हमलों में एनडीएफबी के उग्रवादियों ने मंगलवार की रात चौंतीस लोगों को मार डाला। मारे गए लोगों में ज्यादा संख्या महिलाओं और बच्चों की है। बाद में आई खबरें संकेत देती हैं कि इन हमलों की भेंट चढ़ने वालों की तादाद इससे अधिक हो सकती है।

असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने ठीक ही इन हमलों को बर्बरतापूर्ण करार दिया है। उन्होंने हिंसा-प्रभावित जिलों में फौरन तीन-तीन मंत्रियों की दो टीम भेजी। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री ने घटना के बारे में गोगोई से बात की और केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने असम जाकर हालात का जायजा लेने का फैसला किया। केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों की चिंता स्वाभाविक है। पर सवाल उठता है कि असम की हिंसा की बाबत क्या कोई राजनीतिक जवाबदेही नहीं बनती? चाहे कोकराझार में ढाई साल पहले हुए दंगे रहे हों, या प्रतिबंधित संगठनों का खूनखराबा हो, यह बात बार-बार रेखांकित की गई है कि जब तक असम को ‘बंदूक संस्कृति’ से मुक्ति नहीं मिलती, ऐसी घटनाओं का होना रोका नहीं जा सकेगा। असम में अवैध हथियारों की आपूर्ति और उपलब्धता जितनी है, शायद ही किसी और राज्य में हो। एनडीएफबी संप्रभु बोडोलैंड राज्य की स्थापना का मकसद लेकर वजूद में आया था। बीएलटी यानी बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स के नाम से एक और हथियारबंद गुट भी इसी बहाने बना। एनडीएफबी के बड़े हिस्से ने अंतत: बोडो स्वायत्त परिषद की स्थापना के साथ हिंसा का रास्ता छोड़ दिया। मगर सोंगबिजित गुट अब भी पुरानी राह पर चल रहा है।

राज्य के पुलिस अधिकारियों का अनुमान है कि उग्रवाद-विरोधी कार्रवाई में सुरक्षा बलों के हाथों अपने कुछ लोगों के मारे जाने का बदला लेने के लिए सोंगबिजित गुट ने ताजा वारदात को अंजाम दिया। दुर्गम क्षेत्र में रह रहे ‘आदिवासी’ समुदाय के लोग उनके आसान निशाना बने। कई बार दूसरे राज्यों से मजदूरी या किसी अन्य काम के लिए गए लोगों पर भी उग्रवादी गुटों का कहर टूटता है। यही नहीं, प्रतिस्पर्धी गुटों की आपसी मारकाट भी चलती रही है। दूरदराज के इलाकों में, जहां पुलिस की मौजूदगी बहुत विरल है, या थाने बहुत दूर हैं, हथियारबंद संगठनों के लिए किसी वारदात को अंजाम देकर भाग जाना बहुत मुश्किल नहीं होता। उनकी धर-पकड़ का अभियान तेज करने के साथ ही यह पता लगाया जाना चाहिए कि उन्हें हथियारों और पैसों की मदद कहां से मिल रही है। राज्य में अवैध हथियारों की जब्ती का अभियान चलना चाहिए। दूसरी अहम जरूरत राज्य की राजनीति को तरह-तरह के अस्मितावादी टकरावों से निजात दिलाने की है। क्या असम में पैठ रखने वाले प्रमुख राजनीतिक दल इस तकाजे को गंभीरता से लेंगे?

 

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