अशरफ गनी एक बार फिर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए हैं। अफगानिस्तान के चुनाव आयोग ने अंतिम नतीजे जारी करते हुए उन्हें विजयी घोषित कर दिया है। गनी को कुल 50.64 फीसद वोट मिले, जबकि उनके विरोधी अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 39.52 फीसद। राष्ट्रपति बनने के बाद अब अगले पांच साल तक अशरफ गनी के सामने नई चुनौतियां होंगी, क्योंकि उनकी चुनावी जीत की घोषणा ऐसे वक्त में हुई है जब अफगान तालिबान और अमेरिका के बीच शांति मसौदा को अंतिम रूप देने की तैयारियां चल रही थीं और श्क्रवार को यह खबर भी आ गई कि अमेरिका और तालिबान के बीच 29 फरवरी को शांति समझौते पर हस्ताक्षर होंगे।

अगर अमेरिका और अफगान तालिबान के बीच सब ठीक रहा और समझौते पर हस्ताक्षर हो गए, जैसी कि घोषणा हो चुकी है, तो तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता में हिस्सेदारी मिलना तय है। उस सूरत में उदारवादी पश्तून अशरफ गनी के सामने नई चुनौती आएंगी, जब उनके ही पश्तून बिरादरी के कट्टर इस्लामिक तालिबानी कमांडर अफगान शासन को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करेंगे। तालिबान और अमेरिका के बीच शांति वार्ता के कई दौर चले। अब युद्ध विराम की घोषणा की गई है। दो चीजें साफ हैं।

समझौते के बाद भी अफगानिस्तान में अशरफ गनी ही राष्ट्रपति के पद पर रहेंगे, क्योंकि शांति वार्ता और समझौते की संभावना के बीच अशरफ गनी को राष्ट्रपति पद के लिए विजयी घोषित किया गया है। पर शांति समझौता अगर सिरे चढ़ता है तो अशरफ गनी के शासन में तालिबान भी भागीदार होगा, यह तय है। इसके बाद अफगानिस्तान में आंतरिक विरोधाभास और बढ़ेगा। हालांकि अशरफ गनी ने अफगान तालिबान और अमेरिका के बीच चल रही शांति वार्ता पर अपनी सहमति पहले दे चुके हैं और उनका विरोध खत्म हो गया है।

लेकिन उन्हें आने वाले समय की चुनौतियों का पता है। यह चुनौती सिर्फ तालिबान की तरफ से नहीं मिलेगी, बल्कि मजबूत ताजिक, उज्बेक और हजारा जनजाति भी अफगान सरकार के सामने संकट बन कर खड़ी है। ये तीनों जनजातियां तालिबान की घोर विरोधी हैं। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि तालिबान की भूमिका काबुल स्थित केंद्र सरकार और प्रांतीय सरकारों में क्या होगी? अफगानिस्तान की मुख्य समस्या सिर्फ भौगोलिक ही नहीं है, जनजातियों के बीच आपसी संघर्ष भी बड़ी समस्या है।

अफगानिस्तान की सत्ता और संसाधनों पर कब्जे के लिए पश्तून, उज्बेक और ताजिक जनजातियों के बीच लंबे समय से हिंसक संघर्ष चलता आया है। अफगानिस्तान की कुल आबादी का बयालीस फीसद हिस्सा पश्तूनों का है, तो दूसरी मजबूत जनजाति ताजिक है जो सत्ताईस फीसद है। उज्बेक जनजाति भी तालिबान की घोर विरोधी है। संख्या के हिसाब से तीसरी प्रमुख जनजाति हजारा भी तालिबान विरोधी है, क्योंकि शिया हजारा सुन्नी तालिबान को नापसंद करती है। अशरफ गनी को यह पता है कि तालिबान का विरोध उदारवादी पश्तून नेताओं से भी है। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और खुद अशरफ गनी वैचारिक तौर पर तालिबान के घोर विरोधी रहे हैं।

ऐसे में अगर तालिबान अशरफ गनी के प्रशासन में भागीदारी हासिल करता है, उदारवादी पश्तूनों और तालिबान के बीच भी टकराव निश्चित है। अफगान प्रशासन में शामिल ताजिक और उज्बेक भी तालिबान से टकराव पैदा करेंगे। अफगान नेशनल आर्मी में इन तीनों ही जनजातियों की खासी तादाद है। ताजिक नेता तालिबान को पाकिस्तान का मुखौटा मानते हैं। अफगान खुफिया एजंसी राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के प्रमुख रहे ताजिक नेता अमरुल्लाह सालेह पाकिस्तान और तालिबान के घोर विरोधी हैं। इस स्थिति में अशरफ गनी ही नहीं, पूरे अफगानिस्तान के लिए मुख्य चुनौती तब सामने आएगी जब तालिबान को अफगान शासन में भागीदारी मिलेगी।

अमेरिका अफगानिस्तान में अब और सैन्य खर्च के लिए तैयार नहीं है। तालिबान से समझौता होने की स्थिति अपने तेरह हजार सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुलाएगा। उस सूरत में अशरफ गनी के सामने बड़ी चुनौती तालिबान लड़ाकों और अफगान नेशनल आर्मी के बीच तालमेल बनाने की होगी। तालिबान की सैन्य क्षमता अभी भी मजबूत है। पिछले साल उसने कई बड़े हमलों को अंजाम दिया जिनमें तेईस सौ से ज्यादा लोग मारे गए। यह सच्चाई है कि नाटो सेना की मौजूदगी के बावजूद अफगानिस्तान के लगभग चालीस फीसद इलाके को तालिबान नियंत्रित कर रहा है। तालिबान ने अफगान सेना को अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी में भारी चुनौती दी है। अफगान सेना और अफगान पुलिस को तैयार करने पर अमेरिका अब तक तिरासी अरब डॉलर खर्च कर चुका है।

तालिबान अफगान की सरकारी सेना को बेहद नापसंद करता है। अगर भविष्य में तालिबान शासन में भागीदार बनता है तो तालिबान की पहली कोशिश अफगान सेना के ढांचे को खराब करना होगा। पिछले साल अफगान सेना ने तालिबान के खिलाफ लगभग तीन हजार सैन्य कार्रवाइयां की थीं। दूसरी ओर, तालिबान ने भी अफगान सेना और पुलिस को भारी नुकसान भी पहुंचाया है। पिछले चार साल में आतंकी हमलों में अफगान सेना और पुलिस के पैतालीस हजार जवान मारे जा चुके हैं। ऐसे में अहम सवाल यह है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान और अफगान सरकार के बीच संबंध खराब होते हैं तो अफगान नेशनल आर्मी तालिबान से निपटने में कितनी सक्षम होगी?

अभी तक अफगान नेशनल आर्मी को तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में अमेरिकी सैनिकों का सहयोग मिलता रहा है। पाकिस्तान भी यही चाहेगा कि अफगान नेशनल आर्मी कमजोर हो, क्योंकि इसमें पाकिस्तान विरोधी ताजिक, उज्बेक और हजारा जनजातियों के लोग मौजूद हैं। ये जनजातियां भारत के ज्यादा नजदीक हैं। अशरफ गनी के लिए अफगान सेना का सैन्य बजट भी बड़ी चुनौती है। सेना के लिए संसाधन जुटाना अशरफ गनी की मुख्य समस्या होगी।

अफगान सेना का बजट अभी तक विदेशी अनुदान पर निर्भर है, जो करीब पांच अरब डॉलर सालाना है। सवाल है कि आने वाले वक्त में अफगान सेना के खर्च को लेकर विदेशी शक्तियां कितनी उदार रहती हैं। अमेरिकी रक्षा विभाग ने खुद माना है कि अक्तूबर 2001 से लेकर मार्च 2019 तक अमेरिका अफगानिस्तान में सात सौ साठ अरब डॉलर खर्च कर चुका है। इसमें से अस्सी फीसद पैसा सैन्य मामलों पर खर्च हुआ। अशरफ गनी की सबसे बड़ी चुनौती जनजातीय खांचे में बंटे अफगानिस्तान को काबुल के प्रशासनिक ढांचे में एकजुट करना है।

अफगानिस्तान की चारों प्रमुख जनजातियां अपने आप को एक दूसरे से ज्यादा सर्वोच्च समझती रही हैं। संसाधनों पर कब्जे के लिए इनके बीच आपसी संघर्ष है। इन जनजातियों के आपसी संघर्ष को खत्म करना आसान नहीं है। इस जनजातीय संघर्ष को पड़ोसी पाकिस्तान और ईरान हवा देते रहे हैं, क्योंकि इससे इन दोनों मुल्कों के हित सधते हैं। नब्बे के दशक से पाकिस्तान की नजर क्वेटा से अफगानिस्तान होकर तुर्कमेनिस्तान तक जाने वाले आर्थिक गलियारे पर रही है। इस गलियारे पर पाकिस्तान अपना वर्चस्व चाहता है। यह आर्थिक गलियारा अफगानिस्तान के जिन राज्यों से गुजरता है, उस इलाके में पश्तून जनजाति का वर्चस्व है। इन राज्यों में तालिबान 1990 के दशक से काफी मजबूत है। लेकिन क्वेटा से तुर्कमेनिस्तान तक जाने वाला यह आर्थिक गलियारा ईरान सीमा से काफी नजदीक है। ईरान 1990 के दशक से इस गलियारे पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए पाकिस्तान की रणनीतियों को विफल करता रहा है। इसलिए राष्ट्रपति गनी को अब हर मोर्चे पर निपटने की तैयारी करनी होगी।