हाल में महाराष्ट्र की आतंकवाद निरोधक इकाई (एटीएस) के पूर्व प्रमुख हिमांशु रॉय ने खुदकुशी जैसा कदम उठाया तो पुलिस विभाग ही नहीं, आम लोग भी सन्न रह गए। ‘सुपरकॉप’ के नाम से चर्चित रहे हिमांशु रॉय कैंसर से पीड़ित थे। लंबे समय से उनका इलाज चल रहा था। व्यक्तिगत रूप से जानने वाले लोग भी उनके आत्महत्या का रास्ता चुनने से बेहद हैरान-परेशान हैं। दबंग, जिंदादिल और स्वास्थ्य को लेकर सजग रहने वाले हिमांशु रॉय का कैंसर से लड़ते हुए इस तरह अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेना, उन लोगों की पीड़ा से रूबरू करवाता है जो बीमारियों के आगे हार मान जाते हैं। हालांकि इस ओर गौर नहीं किया जाता है, पर देश में ऐसे लोगों का एक बड़ा आंकड़ा है जो शारीरिक-मानसिक व्याधियों से जूझते हुए जिंदगी से मुंह मोड़ लेते हैं। किसी असाध्य बीमारी से जूझते हुए जब दर्द और शारीरिक-मानसिक संघर्ष असहनीय हो जाता है तो लोग जिंदगी के सफर पर ही विराम लगा देने का फैसला कर लेने जैसा कदम उठाने को मजबूर होते हैं। यह हमारी सामाजिक, पारिवारिक और चिकित्सीय व्यवस्था के लिए बेहद चिंतनीय है कि बीमारियां भी खुदकुशी का बड़ा कारण बनती जा रही हैं।

दरअसल, लंबे समय तक चलने वाला इलाज और शरीर की घटती ऊर्जा से टूटता मनोबल कई बार मौत के चुनाव को मजबूर कर देता है। आंकड़े बताते हैं कि बीते पंद्रह वर्षों में देश में करीब चार लाख लोग विभिन्न बीमारियों के चलते आत्महत्या कर चुके हैं। हर पांच में से एक आत्महत्या बीमारी के कारण होती है। कभी असहनीय दर्द, तो कभी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते इलाज न करवा पाने की मजबूरी। किसी मामले में मरीज परिजनों को सेवा और खर्चे से बचाने के लिए, तो कभी खुद के बचने की कोई उम्मीद बाकी न रहने पर मरीज ऐसा आत्मघाती कदम उठा लेता है। कुछ मामलों में देखने में आता है कि लंबी, गंभीर और तकलीफदेह बीमारी इंसान को भीतर से तोड़ देती है। यह निराशा और पीड़ा का ऐसा भंवर होता है कि इंसान को अपना जीवन समाप्त कर लेना ही एकमात्र रास्ता दिखाई देता है। हालांकि हर इंसान इस जंग को पूरी शक्ति से लड़ता है, पर नैराश्य का यह दौर कभी-कभी भावनात्मक टूटन की बड़ी वजह बन जाता है। जिंदादिल अफसर हिमांशु रॉय ने भी कैंसर जैसी बीमारी का डट कर मुकाबला किया। लेकिन हालिया समय में वे बेहद कमजोर हो गए थे। उनके सिर के बाल झड़ गए थे। शरीर काफी थक गया था। इन हालात में भी मनोबल को बनाए रखने के लिए उन्होंने दर्जनों हास्य उपन्यास मंगाए और पढ़े, पर इस पीड़ा से बाहर नहीं आ सके।

कहना गलत नहीं होगा कि मनोवैज्ञानिक रूप से यह जद्दोजहद इंसान को भीतर से इतना कमजोर कर देती है कि खुद को संभालना मुश्किल हो जाता है। हमारे यहां जिस अनुपात में बीमारियों के आंकड़े बढ़ रहे हैं, इन व्याधियों के चलते जीवन लीला खत्म करने वालों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। भारत में वर्ष 2015 में एक लाख तैंतीस हजार से ज्यादा लोगों ने खुदकुशी की थी। पारिवारिक समस्याएं और बीमारियां इन लोगों की आत्महत्या के दो सबसे बड़े कारण रहे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2001 से 2015 के बीच भारत में अठारह लाख से ज्यादा लोगों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। इनमें से करीब चार लाख लोगों ने विभिन्न बीमारियों के कारण आत्महत्या की थी। सवा लाख लोगों ने मानसिक रोगों के कारण और दो लाख सैंतीस हजार लोगों ने लंबी बीमारियों से परेशान होकर जीवन का अंत कर लिया।

यह वाकई चिंतनीय है कि भारत में हर एक घंटे में चार लोग बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं। बीमारी की वजह से आत्महत्या करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र सबसे आगे है। बीते पंद्रह सालों में महाराष्ट्र में तिरसठ हजार, आंध्र प्रदेश में उनचास हजार और उत्तर प्रदेश में साढ़े सात हजार लोगों ने बीमारी के कारण खुदकुशी कर ली। जबकि हमारे यहां ऐसे अधिकतर मामले तो दर्ज भी नहीं हो पाते। घर-परिवार को संभालने में जुटी महिलाएं भी बीमारियों से जूझते हुए आत्महत्या का कदम उठा लेती हैं। कैसी विडंबना है कि खुदकुशी की घटनाओं में लगभग इक्कीस फीसद घटनाएं बीमारियों से जूझने वाले लोगों से जुड़ी हैं। निसंदेह ऐसे हालात समाज और स्वास्थ्य विभाग दोनों को चेताने वाले हैं।

गौरतलब है कि आज भी आर्थिक असमानता के कारण समाज के बड़े तबके तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं है। ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैं जो किसी गंभीर बीमारी के इलाज का खर्च उठाने की स्थिति में ही नहीं हैं। गंभीर, लंबी और असाध्य बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को परिजन बोझ समझने लगते हैं। ‘सेंटर फॉर इंश्योरेंस एंड रिस्क मैनेजमेंट और इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च’ द्वारा मध्यप्रदेश के दो जिलों में किए गए अध्ययन के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में चालीस प्रतिशत परिवारों में किसी सदस्य के बीमार पड़ जाने के कारण परिवार की आय को बड़ा धक्का लगता है। वैश्विक अध्ययन भी बताते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक कारक भी आत्महत्या करने के व्यवहार को प्रभावित करने वाले अहम कारक होते हैं। समाज के जिन तबकों तक चिकित्सीय सेवाओं की पहुंच नहीं होती, उनमें ऐसे मामले ज्यादा देखने में आते हैं। यही वजह है कि यह समस्या स्वास्थ्य मंत्रालय को स्वास्थ्य के अधिकार से जोड़ कर भी देखनी होगी। कई असाध्य बीमारियों के रोगियों के प्रति आज भी भेदभाव की सोच देखने में आती है। मरीजों के साथ भी डॉक्टरों का भावनात्मक रिश्ता देखने को नहीं मिलता। ऐसे में बीमारी से जूझ रहे इनसान एकाकीपन और अपराध बोध के शिकार बन जाते हैं। यह एक कटु सत्य है कि ऐसे लोगों के लिए सकारात्मक और संवेदनशील व्यवहार परिवार और परिवेश में ही नहीं, चिकित्सा सेवाओं से जुड़े संस्थानों से भी नदारद है।

हालिया बरसों में हमारा सामाजिक-पारिवारिक ढांचा भी पूरी तरह टूट गया है। संयुक्त परिवारों में किसी बीमार सदस्य की देखभाल कोई बड़ी समस्या नहीं हुआ करती थी। इस व्यवस्था में परिजनों या संबंधियों के उपचार या देखरेख के लिए सभी अपनी भागीदारी निभाते थे। अब एकल परिवारों की बढ़ती संख्या में मरीजों को ही नहीं, स्वस्थ लोगों को भी अकेला और असहाय कर दिया है। पारिवारिक व्यवस्था का यह मौजूदा ढांचा जाने-अनजाने पीड़ित व्यक्ति को यह अहसास करवा ही देता है कि उसकी बीमारी परिवार की आर्थिक स्थिति और परिजनों की आजादी के लिए बड़ी समस्या बन रही है। नतीजतन गंभीर बीमारी से जूझ रहे इनसान को भय, नाउम्मीदी, उन्माद, असुरक्षा और अपराध-बोध जैसे कारक उद्वेलित करने लगते हैं।

बीते डेढ़ दशक में बीमारी के कारण खुदकुशी करने वालों में सबसे ज्यादा लकवा, कैंसर और एचआइवी संक्रमण से पीड़ित लोग शामिल हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि ऐसे रोगों से जूझ रहे लोगों के प्रति अपने हों या पराए, सहयोग और समझदारी भरा व्यवहार देखने में नहीं आता। यही वजह है कि दुविधा और दुख के ऐसे मोड़ पर कई लोग हिम्मत हार जाते हैं। ऐसे लोगों केआत्मबल को टूटने से बचाने के लिए गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं और संवेदनशील सामाजिक माहौल की दरकार है। आज के बदलते सामाजिक ताने-बाने में भावनात्मक सहयोग देने वाला परिवेश बीमारी से जूझ रहे इंसान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है।