भारतीय कुश्ती महासंघ यानी डब्लूएफआइ को लेकर सरकार ने हाल ही में जो सख्त फैसला लिया था, उससे यही संदेश गया कि देर से ही सही, लेकिन इस मसले पर जरूरी दखल दी गई है और अब इस खेल और खिलाड़ियों के बेहतर भविष्य की उम्मीद की जा सकती है। मगर अब निलंबित डब्लूएफआइ के अध्यक्ष संजय सिंह ने जो तेवर दिखाया है, उससे कोई हल या नया रास्ता निकलने के बजाय इस मुद्दे पर चल रहे घमासान के और गहराने की ही आशंका खड़ी हो गई है।

दरअसल, खेल मंत्रालय की ओर से डब्लूएफआइ के निलंबित होने के बावजूद उसके अध्यक्ष ने न केवल भारतीय ओलंपिक संघ की ओर से गठित तदर्थ समिति को मानने से इनकार कर दिया, बल्कि यह भी कहा वे मंत्रालय की ओर से किए गए निलंबन को स्वीकार नहीं करते। हालांकि इस बीच तदर्थ समिति ने जयपुर में राष्ट्रीय चैंपियनशिप कराने की घोषणा की थी, मगर दूसरी ओर संजय सिंह ने भी महासंघ की ओर से यही प्रतियोगिता कराने की बात कही। सवाल है कि इस खींचतान के बीच क्या नियम-कायदों की कोई जगह बची है और सरकार की ओर से की गई कार्रवाई की कोई अहमियत है?

गौरतलब है कि डब्लूएफआइ के पूर्व अध्यक्ष पर कुछ महिला पहलवानों की ओर से लगाए गए आरोपों से उठे विवाद का निष्कर्ष इस रूप में सामने आया कि बृजभूषण शरण सिंह के बाहर होने के बाद उनके करीबी संजय सिंह को नया अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। नए महासंघ में एक भी महिला को नहीं चुना गया था।

इस बीच चुनाव के नतीजे को बृजभूषण शरण सिंह के खेमे की ओर से जिस तरह अपनी जीत के रूप में पेश किया गया, उसके जरिए एक तरह से पिछले कई महीनों से महिला पहलवानों के संघर्ष को यह संदेश देने की कोशिश की गई कि प्रभावशाली नेताओं की जिद के आगे उनकी जगह क्या है। स्वाभाविक ही निराशा से भरी साक्षी मलिक ने संन्यास की घोषणा कर दी और कई अन्य खिलाड़ियों ने भी पुरस्कार या पदक लौटाने सहित अलग-अलग तरीके से अपना प्रतिरोध दर्शाया। हालांकि सरकार को पहले ही इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट रखना चाहिए था, मगर इसके बाद उसने कुश्ती महासंघ के चुनाव में कई अनियमितताओं का हवाला देकर उसे निलंबित कर दिया और भारतीय ओलंपिक संघ ने तीन सदस्यीय तदर्थ समिति गठित कर दी।

जाहिर है, अगर सरकार की इस कार्रवाई का आधार मजबूत है, तो उसे इस फैसले को अमल में उतारने को लेकर भी ठोस कदम उठाना चाहिए। मगर इस पर निलंबित डब्लूआइएफ के अध्यक्ष ने महासंघ को स्वायत्त बताते हुए जैसा रुख अख्तियार किया है, उससे यही लगता है कि लंबे समय से चल रहे जद्दोजहद के समांतर अब इस मामले में कई पक्ष बन गए हैं।

अब यह देखने की बात होगी कि निलंबित कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष ने निलंबन के फैसले को ताक पर रख कर अपने स्तर पर प्रतियोगिता का आयोजन कराने की घोषणा कर दी है तो इस पर सरकार का क्या रुख सामने आता है। विडंबना यह है कि महिला पहलवानों के उत्पीड़न के आरोपों के बावजूद सरकार ने समय पर इस संबंध में अपना पक्ष साफ नहीं किया।

इस रवैये का संदेश खिलाड़ियों के बीच कैसा गया होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि राजनीति के दुश्चक्र में फंसे खेल संघों को खेल के हित में काम करने की स्थितियां बनाने के बजाय कुछ प्रभावशाली नेताओं के खिलवाड़ को लेकर एक विचित्र उदासीनता बरती जाती है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इसका आखिरी नुकसान खेल और खिलाड़ियों को उठाना पड़ता है।