पिछले सात महीने के दौरान यह दूसरी बार है जब आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर यह आरोप मुखर हुआ है कि वे पार्टी को मनमाने ढंग से चलाना चाहते हैं। दिल्ली के नरेला में आयोजित ‘आप’ की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में पार्टी के संस्थापक सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण को भी निमंत्रित किया गया था। लेकिन पिछले कई महीनों से केजरीवाल पर जिस तरह अपनी मनमानी चलाने के आरोप लगते रहे थे और कई तरह के विवाद सामने आए, उसके मद्देनजर शांति भूषण ने पार्टी की कार्यप्रणाली पर तीखे सवाल उठाए।
उन्होंने पार्टी चलाने के केजरीवाल के तरीके को खाप पंचायत का तरीका तक करार दिया और कहा कि दिल्ली सरकार में कई मंत्री भ्रष्टाचार में शामिल हैं। दूसरी ओर, उनके बेटे प्रशांत भूषण ने पार्टी के भीतर पारदर्शिता के अभाव पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि जब तीन सौ में से सौ से ज्यादा सदस्यों को बैठक के लिए न्योता नहीं भेजा गया तो क्यों नहीं इसे खाप से बदतर माना जाए!
गौरतलब है कि इसी साल अप्रैल में योगेंद्र यादव के साथ पार्टी से निकाले जाने के बाद उपजे हालात में प्रशांत भूषण ने यही आरोप लगाया था कि आप अब खाप बन गई है, जहां सभी फैसले तानाशाही तरीके से लिए जाते हैं। इसके अलावा, मई में पार्टी की महाराष्ट्र इकाई में भी बड़ी दरार तब सामने आई जब वहां केजरीवाल के ‘तानाशाही’ रवैये की निंदा करते हुए लगभग पौने चार सौ कार्यकर्ताओं ने पार्टी छोड़ दी थी।
यह हैरानी की बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक आंदोलन से ही उपजी एक पार्टी के अनेक विधायकों पर आज भ्रष्ट आचरण के आरोप लग रहे हैं। ऐसे आरोप पहले भी लगे हैं, लेकिन लगता है कि आप के नेताओं ने कोई सबक नहीं लिया। अब एक बार फिर जब उनके कामकाज के तौर-तरीके पर सवाल उठे हैं तो खुद अरविंद केजरीवाल को सफाई के लिए आगे आना पड़ा है। लेकिन समस्या एकदम फौरी नहीं है।
आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि आंतरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता और स्वच्छ प्रशासन के नारे के साथ राजनीति के मैदान में उतरी यह पार्टी इन्हीं कसौटियों पर नाकाम होती दिख रही है? भ्रष्टाचार के खिलाफ उठी आवाज के साथ आम लोगों ने अपनी जो उम्मीदें जोड़ी थीं, अब वे हाशिये पर क्यों जाती दिख रही हैं? क्या इस तरह के सारे नारे और सैद्धांतिक दावेसत्ता में आने तक के लिए ही थे?
कायदे से जब सत्ता में आने के बाद पार्टी के ढांचे और निर्णय-प्रक्रिया को पर्याप्त लोकतांत्रिक बनाने और अपने घोषित मूल्यों पर चलने के लिए कुछ नेता जोर दे रहे थे, तब अरविंद केजरीवाल को अपनी ओर से पहल कर आंतरिक विवाद को बढ़ने से रोकने और तर्कसंगत समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन हुआ इसका उलटा। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।