आधुनिकता के नाम पर युवाओं ने जीवन को अपने ढंग से जीने की आजादी लगभग हासिल कर ली है। लगता है, शिक्षित समाज का एक बड़ा हिस्सा इसे उनका अधिकार मान कर स्वीकार भी कर चुका है। रूढ़ियों को ढोते रहना प्रगतिशील समाज की निशानी भी नहीं होती। मगर दिक्कत तब होती है, जब समाज की मूल बनावट और उसके मिजाज को रूढ़ि करार देकर ध्वस्त करने का प्रयास किया जाता है।
जीवन जीने की आजादी का अर्थ बहुत सारे युवाओं ने स्वच्छंद जीना समझ लिया है। इसी का नतीजा है कि अपनी पसंद के किसी साथी के साथ बिना विवाह के रहना एक आम प्रवृत्ति बनती जा रही है। शुरू में इस प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध हुआ, मगर कुछ लोगों ने इसके पक्ष में आवाजें उठानी शुरू कर दीं, सहजीवन को निजता के अधिकार से जोड़ कर देखा जाने लगा, तब यह प्रवृत्ति अपनी जड़ें जमाती गई।
अब इसके अनेक नकारात्मक प्रभाव नजर आने लगे हैं। सहजीवन में रह रहे जोड़ों के हिंसक व्यवहार की अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं। मगर इस प्रवृत्ति में कोई बदलाव नजर नहीं आ रहा। केरल उच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक मामले में कहा कि सहजीवन को किसी भी वैवाहिक कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है। दरअसल, केरल में बिना विवाह के साथ रह रहे एक जोड़े ने अदालत में तलाक की अर्जी लगाई थी।
बिना विवाह किए साथ रहने में यह तो आजादी है कि दोनों में अगर किसी तरह का मतभेद होता है और वे अलग होना चाहते हैं, तो हो सकते हैं। इसी आजादी के चलते बहुत सारे युवा सहजीवन में रहने का फैसला करते हैं। मगर दिक्कत तब शुरू होती है, जब वैवाहिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए बने कानूनों के उपयोग की बारी आती है।
सहजीवन में रह रही लड़कियां घरेलू हिंसा के मामले में किसी तरह की कानूनी सहायता नहीं प्राप्त कर पातीं। ऐसे जोड़ों का प्राय: अपने परिवार से संबंध विच्छेद हो चुका होता है, इसलिए वहां से भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाती। विवाह के बाद एक लड़की को जो कानूनी सुरक्षा और अधिकार मिल जाते हैं, वह सहजीवन में रहते हुए नहीं मिल सकते।
इस तरह वह न तो किसी भी रूप में अपने भरण-पोषण का दावा कर सकती है और न अपने साथी की संपत्ति में हिस्सा मांग सकती है। अगर सहजीवन में रहते हुए उन्हें किसी संतान की उत्पत्ति होती है, तो उसका अधिकार भी बाधित रहता है। हर समाज की अपनी अलग संरचना होती है। भारतीय समाज में किसी भी स्त्री-पुरुष को बिना विवाह के साथ रहने की इजाजत नहीं है।
यहां स्त्री-पुरुष का साथ केवल जिस्मानी नहीं, कई स्तरों पर जुड़ा होता है। फिर भी पश्चिमी प्रभावों में कुछ युवा अपनी आजादी का तर्क देते हुए बिना विवाह के साथ रहना शुरू कर देते हैं। उन्हें लगता है कि विवाह एक प्रकार की सामाजिक झंझट है, इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म हो जाती है।
मगर वे शायद भूल जाते हैं कि उनकी मानसिक बुनियाद इसी समाज में तैयार हुई है और इसी सामाजिक वातावरण में उन्हें रहना पड़ता है, इसलिए शादी न करने के बावजूद उनके सामने भी वही दुश्वारियां, वही संघर्ष पेश आते हैं, जो सामान्य वैवाहिक जीवन में आती हैं। इस तरह बेशक वे समाज में अलग-थलग पड़ जाते हैं। जब तक इस संबंध में कोई कानून नहीं बन जाता, जो कि खासे विवाद का विषय है, सहजीवन की दुश्वारियां समाप्त नहीं होंगी।