हर वर्ष दसवीं और बारहवीं कक्षाओं के परिणाम आने के बाद आमतौर पर विश्लेषण का केंद्र होता है कि कितने विद्यार्थियों ने कामयाबी हासिल की, कौन सबसे अव्वल रहा। इसके इर्द-गिर्द होने वाली बातचीत और इससे पैदा होने वाली उम्मीद को स्वाभाविक कहा जा सकता है, क्योंकि सभी अभिभावक यही चाहते हैं कि उनका बच्चा परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो, बल्कि सबसे ज्यादा नंबर लाए। मगर इस बीच जो विद्यार्थी कम अंक ला पाते हैं या फिर किन्हीं वजहों से अपनी कक्षा की परीक्षा में पास होने के लिए निर्धारित अंक हासिल नहीं कर पाते हैं, वे मुख्यधारा की बहसों या विमर्श के दायरे से बाहर होते हैं।

जबकि जो बच्चे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं या फिर जिन्हें बहुत कम अंक मिलता है, वे भी इसी समाज और शिक्षा व्यवस्था के हिस्से होते हैं और परिणाम में उन्हें मिले अंक यही दर्शाते हैं कि उनकी पढ़ाई में कहीं कमी रह गई। सवाल है कि क्या इसके लिए केवल फेल होने वाला बच्चा जिम्मेदार होता है या फिर उसकी पढ़ाई-लिखाई के तौर-तरीके की भी कोई भूमिका होती है!

गौरतलब है कि पिछले वर्ष देश भर में दसवीं और बारहवीं कक्षाओं की बोर्ड परीक्षा में पैंसठ लाख से ज्यादा विद्यार्थी फेल हो गए थे। केंद्रीय बोर्ड के मुकाबले राज्य बोर्डों में विफलता की यह दर ज्यादा चिंताजनक थी। यह दुखद तस्वीर खुद शिक्षा मंत्रालय की एक रपट में सामने आई है, जिसके मुताबिक फेल होने वालों में दस लाख ऐसे विद्यार्थी हैं, जो परीक्षा देने गए ही नहीं।

सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं कमजोर तबके के बच्चे

यह स्थिति यही बताती है कि अभी बहुत कुछ ऐसा किया जाना बाकी है जो स्कूली शिक्षा के दायरे में आने वाले बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को गुणवत्ता आधारित बना सके और नतीजों की तस्वीर बदल सके। छिपा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में से ज्यादातर अपेक्षया कमजोर तबके से आते हैं। स्कूलों में गुणवत्ता आधारित शिक्षा सुनिश्चित कराने का काम अभी भी अधूरा है। ऐसे भी बहुत सारे बच्चे हैं, जो अपनी पारिवारिक स्थितियों की वजह से स्कूल नहीं जा पाते या बीच में ही उनकी पढ़ाई छूट जाती है। सवाल है कि देश भर में शिक्षा की इस सूरत की जिम्मेदारी किसकी है!