जनसत्ता 8 सितंबर, 2014: आस्ट्रेलिया से परमाणु सहयोग समझौता भारत की एक खास उपलब्धि है, साथ ही यह दोनों देशों के रिश्तों में एक नया अध्याय है। इस समझौते के तहत आस्ट्रेलिया से यूरेनियम मिलने का रास्ता साफ हो गया है। यों दोनों देशों के बीच इसके अलावा तीन और समझौते भी हुए जो खेल, जल संसाधन प्रबंधन और व्यावसायिक शिक्षा से संबंधित हैं, पर आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट के दिल्ली आने का मुख्य मकसद असैन्य परमाणु करार को ही अंजाम देना था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जापान यात्रा के दौरान बहुत चाहा कि मेजबान देश से परमाणु ऊर्जा करार हो जाए। पर इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि जापान एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार संधि को लेकर चली आ रही अपनी नीति में ढील देने को तैयार नहीं हुआ। भारत भले इस करार के लिए बहुत इच्छुक रहा हो, पर आस्ट्रेलिया के लिए इस पर राजी होना आसान नहीं था। जापान की तरह आस्ट्रेलिया की भी लंबे समय से यही नीति रही है कि जिस देश ने एनपीटी पर हस्ताक्षर न किए हों, उसके साथ किसी तरह का एटमी करार न किया जाए।
लेकिन यूपीए सरकार के दौरान भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु ऊर्जा संबंधी समझौते के बाद आस्ट्रेलिया के रुख में नरमी के संकेत मिलने लगे और इस क्षेत्र में भी आपसी सहयोग की बातचीत शुरू हुई। इस लिहाज से देखें तो ताजा करार का श्रेय बहुत कुछ दोनों देशों की पूर्ववर्ती सरकारों को भी जाता है। यह समझौता ऐसे समय हुआ है जब कुछ दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका जाना है, जहां परमाणु करार पर अमल भी एक अहम मुद्दा होगा। भारत में यूरेनियम के इस्तेमाल से पैदा होने वाली बिजली कुल विद्युत उत्पादन में महज दो फीसद है। इतने के लिए भी देश में मिलने वाला यूरेनियम पूरा नहीं पड़ता, बाहर से मंगाना पड़ता है। आस्ट्रेलिया के साथ खास बात यह है कि दुनिया के दो-तीन सर्वाधिक यूरेनियम-संपन्न देशों में वह एक है। इसलिए यूरेनियम निर्यात के लिए उसका राजी होना भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र की एक बड़ी बाधा दूर कर सकता है।
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