हाल ही में एक कार्यक्रम में जाना हुआ, जहां जीवन के क्रम-अनुक्रम और मौजूदा समय पर बात हो रही थी। बढ़ती महंगाई ने लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में किस तरह की मुश्किलें पैदा कर दी हैं, इस पर चर्चा सहज ही ऐसी जगहों पर शुरू हो जाती है। सभी जानते हैं कि आज लोग किस तरह के हालात का सामना कर रहे हैं और किस कदर बेरोजगारी फैली है। इसका अहसास सामाजिक बैठकों में अक्सर होता है।

जिंदगी को चलाना कभी आसान नहीं था। जीवन जीने की स्थितियां हमेशा से चुनौतीपूर्ण रही हैं। लेकिन हर समय में चतुर लोग जीने की कोई न कोई तरकीब निकालते रहे हैं। आज बढ़ती आबादी के बीच जीवन जीने और कुछ करने की चुनौती जैसे-जैसे बढ़ी है, वैसे-वैसे रोजगार के मौके भी कम होते गए हैं। अब बैठ कर चौराहे पर वक्त काटने के अलावा कुछ बचा नहीं। पढ़े-लिखे लोगों की फौज दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। तरह-तरह की पढ़ाई करके बेरोजगार बैठे इतने ज्यादा मजबूर लोगों को इससे पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे जिनसे पूछा जाए कि आप क्या कर रहे हैं तो बेहद निराश भाव के साथ वे कहेंगे कि ‘बैठा हूं… खाली हूं! क्या करूं, कोई काम ही नहीं!’

इस युवा पीढ़ी को देख कर डर लगता है। अब तो गांव के बाजारों में ग्राहक कम हो रहे हैं। युवा बाजार में खाली इस दुकान से उस दुकान घूमते मिल जाएंगे। थोड़ी देर के लिए स्कूल-कॉलेज भी घूम आएंगे। अखबार में कुछ तस्वीरें और नौकरी के विज्ञापन देखते हुए वक्त काट लेंगे। थोड़ा-बहुत आपस में हंसी मजाक। ऐसे खाली युवाओं से लोग दूर भागते हैं। कोई उसे सुनना भी नहीं चाहता कि क्या गम है… क्या इच्छा है! इस पीढ़ी के सामने हालात और उसकी जटिलताओं को बिना जाने केवल युवाओं को दोष भी देना ठीक नहीं। दूसरी ओर, शहरों-महानगरों में आकर्षक विज्ञापन और चकाचौंध से बाजार सजा है, लोगों को लुभा रहा है। इच्छाओं के साथ पीढ़ियां दहक रही हैं। रोजगार के साधन नहीं हैं। कहां जाएं… क्या करें…! सब यही सोच रहे हैं और अपने-अपने ढंग से उपाय भी सुझा रहे हैं।

एक कार्यक्रम के दौरान एक महिला ने कहा कि मैंने तो अपने बच्चे के लिए बढ़िया रोजगार सोच रखा है। उसमें कोई घाटा भी नहीं है। मैं चौंक गया। सारी पढ़ाई-लिखाई बेकार लग रही थी। सभी लोग उसके सुझाए उपाय को सुनने के लिए आकुल थे। महिला ने कहा कि हम तो अपने बच्चे के लिए एक मंदिर खुलवा देंगे… हमेशा चढ़ावा आता रहेगा। इसमें बहुत मेहनत भी नहीं है… लोगों का भी अच्छा सहयोग मिल जाएगा। धरम-काज में लोगबाग दिल खोल कर मदद करते हैं। बस कहीं थोड़ी जमीन देखो और भगवान की मूर्ति रख दो। फिर सारा इंतजाम अपने आप हो जाएगा। महिला ने यह राय भी दी कि किसी एक देवता का मंदिर नहीं बनाएं, बल्कि कई सारे देवताओं को मंदिर में रखें… कम खर्च में ज्यादा लाभ होगा। इसके बाद दूसरे लोग भी इस राय को समृद्ध करने में लग गए यह कहते हुए कि इससे बढ़िया रोजगार और क्या हो सकता है!

सोच रहा हूं कि क्या वाकई जमाना इतना बदल गया है! लेकिन फिर जगह-जगह बन रहे मंदिरों पर ध्यान जाने लगा। श्रद्धा के केंद्र व्यापार के केंद्र बनते गए हैं और फल-फूल रहे हैं। रोजगार के अभाव में और होगा भी क्या…! रोजगार के अवसर शहरों में सिमटते गए हैं। इसलिए गांवों से एक समूची पीढ़ी भाग रही है शहर की ओर और ज्यादातर शहरों पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। छोटे कस्बों और शहरों में हर सुबह लोगों की एक बड़ी तादाद वैसे महानगरों की ओर निकल जाती रही है, जहां रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाए। वहां क्या काम मिलेगा, यह कह नहीं सकते और जो काम मिलेगा भी वह किस कीमत पर मिलेगा, क्या मजदूरी मिलेगी, यह सब पहलू मजबूरी के सामने गौण हो जाते हैं। जो काम मिलता भी है, उसके स्थायित्व की कोई गारंटी नहीं होती कि वह नौकरी कल रहेगी या नहीं।

किसी वजह से अगले दिन के रोजगार पर आफत आई तो बैठे-ठाले दिन बिताना और शाम को खाली हाथ घर पहुंचना। यह दृश्य दुखद है, लेकिन बहुत बड़ी चुनौती है। अब जो अक्सर जगह-जगह बवाल आदि के मामले सामने आते रहते हैं, उसका बड़ा कारण लोगों के पास अपने लायक सही रोजगार का नहीं होना भी है। लोग खाली बैठे हैं। उनसे कुछ भी कराया जा सकता है। अब यह एक चुनौती है नगरों और महानगरों की आबादी को सही ढंग से नियोजित कैसे किया जाए। इस दिशा में भी अब गंभीरता से सोचने की जरूरत है। वरना ऐसे ही लोग बच्चे के रोजगार के सवाल पर मंदिर खोलने की बात करेंगे…!